Type Here to Get Search Results !

0
महायोगी गोरक्षनाथ
लेखनी इस व्यकितत्व की महानता के समक्ष नतमस्तक, गुणगान करने के विचार मात्र से गर्वित, और अपनी क्षमता की सीमाओं को जानकर भी प्रफुलिलत है। योग दर्षन और इतिहास मेंं महायोगी गोरक्षनाथ को सामान्यत: दर्षनी नाथपंथी सिद्ध योगियों की Üांृखला मेंं हठयोग के षारीरिक आत्मानुषासन और राजयोग का सूत्रधार कहा जाता है। वे योगी मत्स्येन्æनाथ के षिष्य थे और कदलीवन के स्त्री राज्य की रानी से अपने गुरु को मुä कराने के कारण उनकी प्रसिद्धि दिगिदगन्तर मेंं फैल गयी।
प्रसंगवष योगी मत्स्येन्æनाथ के विषय मेंं संक्षिप्त चर्चा करें तो हम पाते हैं कि, मत्स्येन्æनाथ धार्मिक आन्दोलन काल मेंं हिन्दुत्व, कौल संप्रदाय तथा हठयोग के तत्त्वों के यौगिक और भारत मेंं सर्वाधिक लोकप्रिय होने वाले नाथ सम्प्रदाय के पहले आध्यातिमक गुरू थे। बौद्धो द्वारा योगी मत्स्येन्द्रनाथ को किसी न किसी प्रकार अपने मत से संबंद्ध करने का प्रयास दिखायी देता है। हिन्दुओं की भांति योगी मत्स्येन्æनाथ का नाम बौद्ध नहीं होते हुए भी बौद्ध सम्प्रदाय के नवनाथ और चौरासी सिद्धों की सूची मेंं समान रूप से प्रकट होता है। नेपाल में बौद्धमत के अनुयायियों द्वारा उन्हें अवलोकितेष्वर-पùपाणि के नाम से और हिन्दू मतावलमिबयों द्वारा षिव रूप मेंं दिव्य विभूति की प्रासिथति से तो तिब्बत मेंं उन्हें लुर्इ-पा के नाम से पूजा जाता है।
एक आख्यायिका अनुसार उनका मीननाथ नाम इसलियेे पड़ा कि एक मछली के रूप मेंं उन्होंने षिव से आत्मज्ञान का उपदेष लिया था, जबकि एक अन्य आख्यायिका अनुसार एक मछली द्वारा उदरस्थ कर लियेे गये पवित्र ग्रन्थों को बचाने के कारण उन्हें मीननाथ कहा गया। मत्स्येन्द्रनाथ का ऐतिहासिक जीवन वृत्त उनके चारों ओर फैली हुयी अनेकों कहानियों मेंं खो गया है। मोहन-जो-दड़ो (शुद्ध रूप मोअन-मृतक, जो-का, दड़ो-टीला है) की खुदार्इ में कानों में कुण्ड़ल युä एक योगी की मूर्ति प्राप्त हुर्इ है। अनेक प्रमाणों के आधार पर राजमोहन, नाथ तत्त्वभूषण वी.र्इ. शिलांग ने ‘मत्स्येन्द्र तत्त्व नामक अपनी कृति में इस मूर्ति को योगी मत्स्येन्द्रनाथ की मूर्ति सिद्ध किया हैै। एक संन्यासी होते हुए उन्होंने सीलोन (कुछ ग्रन्थों मेंं सिंहल देष, सिंहपुर तथा कदली प्रदेष आदि नाम बताये गये हैंंं) की दो राजकुमारियों के प्रेम के वषीभूत होकर पाष्र्वनाथ और नेमिनाथ नामक दो पुत्र पैदा किये, जो बाद मेंं जैन सम्प्रदाय के आराध्य बने। मत्स्येन्द्रनाथ के प्रमुख षिष्य योगी गोरक्षनाथ को दर्षनी योगियों का प्रमुख प्रवर्तक माना जाता है।
योगी गोरक्षनाथ के जीवन वृत्त के बारे मेंं प्रमाणिक रूप से अधिक कुछ नहींं कहा जा सका है और जो कुछ उनके बारे मेंं अनगिनत कथाएं और किंवदनितयां सुनी व कही जाती है वे उन्हें आष्चर्यजनक षकितयाें का स्वामी सिद्ध करती हुर्इ उनके व्यäत्तिव के चारों और एक जादुर्इ प्रभामण्डल का निर्माण करती है। गोरक्षनाथ ने वामाचारी तांत्रिक साधना का परिष्कार करते हुए एक ऐसी साधना पद्धति को जन्म दिया जो प्रत्येक उस व्यä किे लियेे साधना का मार्ग खोल देती है, जो वास्तव मेंं आत्म कल्याण करना चाहता है। जाति व धर्म के बन्धनों से रहित सर्व समभाव या विष्वजनीन दृषिट को पनपाने वाली यह नाथ साधना पद्धति, गोरक्षनाथ के समय से नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा के साथ नये रूप मेंं असितत्व मेंं आयी।
कतिपय विद्वानों का कथन है कि, बौद्ध मत का उच्छेद सर्वप्रथम कुमारिल और शंकराचार्य ने किया। नाथ सम्प्रदाय के सिद्ध योगियों के योगदान को उä विद्वानों ने उतना महत्त्व नहींं दिया। इस प्रसंग मेंं डा0 नागेन्द्रनाथ उपाध्याय का कथन है कि, यह स्वीकृति अधूरी है तथा इस मत का प्रतिपादन एकपक्षीय और प्रयोजन विषेष से प्रेरित है। उन्होंने कहा है कि, शंकराचार्य ने यधपि शास्त्र और तर्क की सहायता से बौद्धों को निरुत्तर कर दिया था, किन्तु भारतीय जन-मानस पर जमें बौद्धों को वे नहींं हटा सके थे। यह कार्य गोरक्षनाथ ने जिस प्रतिष्ठा के साथ किया वैसी प्रतिष्ठा के साथ उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भी नहींं कर सके थे। इसी तथ्य को आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल भी स्वीकार करते हैंंं।
विद्वानों, इतिहासकारों और विचारकों में उनके स्थान (जन्म अथवा अवतार) और काल के संबंध मेंं मतैक्य नहींं हैं। अधिकांष ने उन्हें या तो पंजाब के एक साधारण परिवार मेंं पैदा अथवा संबद्ध होना अथवा अधिकांष समय पंजाब मेंं हठयोग के प्रचार में व्यतीत करना और पंजाब से ही दूरदराज तक यात्राऐं करते हुए नानक, कबीर और दादू जैसे सन्तों से सम्पर्क कर योगमार्ग का प्रचार करना बताया है। उनके द्वारा रचित गोरक्षषतक कनफटा योगियों का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। दर्षनी योगियों द्वारा उन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है, जो सूक्ष्मरूप से हिमालय मेंं निवास करते हैंंं और युग-युग मेंं प्रकट होकर योग की पुनस्र्थापना करते हैंंं।ऐसा प्रतीत होता है कि सभी प्रसिद्ध हसितयों में योगी गोरक्षनाथ से संबद्ध होनेकरने की प्रतिस्पर्धा लगी हुर्इ है। यदि योगी गोरक्षनाथ अन सभी के समसामयिक हैं तो ये सब भी परस्पर एक दूसरे के समसामयिक होने चाहिये और इनके मध्य परस्पर संवाद भी किन्तु, ऐसा नहीं है। इस संबंध में तथ्यपरक तर्क के प्रकाष में हम आगे विष्लेषण कर रहे हैं।
विद्वानों मेंं उनके काल के संबंध मेंं भी मतैक्य नहींं है। इतिहासकार और विचारकों ने नानक और कबीर से संवाद के आधार पर योगी गोरक्षनाथ का काल उनके समवर्ती और उनको पंजाब के एक साधारण परिवार से सम्बद्ध या अपने जीवन काल का काफी हिस्सा हठयोग का प्रचार करते हुए पंजाब मेंं व्यतीत करना माना है। योगी गोरक्षनाथयोगी मत्स्येन्द्रनाथ (सामान्यत: इन्हें योग परम्परा के प्रथम प्रवर्तक और मानव रूप में योगियों का प्रथम आध्यातिमक गुरू कहा जाता है) के षिष्य थे।योगी गोरक्षनाथयोगी मत्स्येन्द्रनाथ (सामान्यत: इन्हें योग परम्परा के प्रथम प्रवर्तक और मानव रूप में योगियों का प्रथम आध्यातिमक गुरू कहा जाता है) के षिष्य थे। उनके द्वारा रचित गोरक्षषतक दर्षनी योगियों का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। एक बंगाली आख्यायिका के अनुसार जिन्होंने अपने गुरू योगी मत्स्येन्æनाथ को कदली प्रदेष की कामाख्या रानी के पाष से मुä दिलवायी थी। योगी गोरक्षनाथ की हिन्दी व संस्कृत की रचनाओं की संख्या पर भी विद्वान एकमत नहीं है। डा0 पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने गोरक्षनाथ की हिन्दी की चालीस पुस्तकों की सूची दी है। रांगेय राघव जी ने भी योगी गोरक्षनाथ रचित 41 हिन्दी रचनाओं की सूची दी है किन्तु इनमें से हठयोग संस्कृत की रचना है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, ने भिन्न-भिन्न ग्रन्थ सूचियों और आलोचनात्मक अध्ययनों से गोरक्षनाथ रचित 28 संस्कृत पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय दिया है। इस प्रकार नाथ सम्प्रदाय से इतर विद्वानों के अध्ययन व संग्रह केा मान्यता दें तो 68 पुस्तकों की सूची प्राप्त होती है।
एक दृषिट नाथ सम्प्रदाय के मनीषियों द्वारा दी गयी सूची पर भी डालें तो नवलनाथ मठ बीकानेर से वि.सं. 2021 तदनुसार वर्ष 1965 में प्रकाशित श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक-सागर में निम्नांकित पुस्तकों का रचयिता योगी गोरक्षनाथ को बताया गया है।
1. गोरक्षोपनिषद, 2. गोरक्षपदम, 3. गोरक्षशतकम, 4. गोरक्षबोध:, 5. गोरक्षतत्त्वज्ञानम, 6. गोरक्षकल्प:, 7. गोरक्षछन्द:, 8. गोरक्षशब्दी, 9.गोरक्षवाणी, 10. गोरक्षगोष्ठी, 11. गोरक्षपद्धति:, 12. गोरक्षवचनम, 13. गोरक्षकुण्डली, 14. गोरक्षपंचकम, 15. गोरक्षलक्ष्मणगोष्ठी, 16. गोरक्षगीता, 17. गोरक्षसंहिता, 18. गोरक्षसिद्धान्त:, 19. मत्स्येन्द्रगोरक्षगोष्ठी, 20. योग शतकम, 21. योग मार्तण्ड़, 22. शिवयोगसारावली, 23. शिवयोगसारसंग्रह:, 24.षडक्षरीविधा, 25. सप्तवारा:, 26. अमरौघशासनम, 27. अमरौघ प्रबोध:, 28. अमनस्क योग:, 29. अजपोपनिषद, 30. अभयमात्रा:तत्त्वसार:, 31. अष्टांगमुæाष्टकम, 32. अमृतवाक्यम, 33. अष्टांग योग:, 34.अöुतयोग:, 35. अष्टपरीक्षा, 36.अष्टचक्रम, 37. अष्टमुद्रा:, 38. अभयमात्रा:, 39. आत्मबोध:, 40. आवलिश्लोका:, 41. र्इश्वर प्रत्यभिज्ञा, 42. कोमलास्तव:, 43. कोमलवल्लीस्तव:, 44. योग सारावली, 45. रव रहस्यम, 46. रत्न बोध:, 47. शिवयोग सार:, 48. शिवयोग दर्पण: (तारकयोग:), 49. सिद्धसिद्धान्त पद्धति:, 50. हठ संकेत, 51. कन्थड़ी बोध:, 52. क्षुरिकोपनिषद, 53. क्षुरिकामन्त्र:, 54. खेचरी विधा, 55. गणेशगोष्ठी, 56. चतुविर्ंशति सिद्धय:, 57. चित्तक्रम:, 58. ज्ञानमाला, 59. ज्ञानतिलकम, 60. ज्ञानचतुसित्रशिका, 61. ज्ञानसागर: 62. ज्ञानदीप:, 63. तत्त्वक्रम:, 64. दीक्षा तत्त्वप्रकाश:, 65. द्वात्रिंशल्लक्षणानि, 66. दयाबोध:, 67. नादानुसन्धानम, 68. निरंजन पुराणम, 69. योगबीजम, 70. रोमावली, 71. रामबोध:, 72. शिष्य-दर्शनम, 73. शिष्ठ पुराणम, 74. सिद्ध-सिद्धान्त संग्रह, 75. निर्भय बोध, 76. नृपबोध:, 77. नवरात्रम, 78. नवग्रहा:, 79. परिमल भाष्यम, 80. प्रत्यभिज्ञा दर्शनम, 81. पादुकोदय:, 82. परास्तुति:, 83. पंचाग्नय:, 84. पंचमात्रा:, 85. पंचदशतिथय:, 86. प्राण श्रृंखला, 87. ब्रह्राज्ञानम, 88. भूचर पुराणम, 89. महार्थमंजरी, 90. महाक्रममंजरी, 91. महेष्वर प्रत्यभिज्ञा, 92. महादेव-गोरक्ष गोष्ठी, 93. योगमंजरी, 94. वारविचार:, 95. व्रतम, 96. शिवदृषिट, 97. षटचक्र चिन्तामणि: तथा 98. सूक्ष्मवेद:। 99. विवेक-मार्तण्ड:।
उल्लेखनीय है कि, श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक-सागर के पृष्ठ 129 से 150 पर योगी गोरक्षनाथ द्वारा रचित विवेक-मार्तण्ड: नामक एक ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन किया गया है किन्तु उपरोä सूची में इस ग्रन्थ का नाम नहीं है। हमने इसे क्रमसंख्या 99 पर समिमलित कर लिया है। सम्भवत: सम्पादन की त्रुटिवश इस ग्रन्थ का उल्लेख श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक-सागर में नहीं हो सका। गोरक्षनाथ विरचित कहे, जाने वाले ये सभी ग्रन्थ नेपाल लायब्रेरी में संग्रहीत हैं। नेपाल राजगुरू योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज दिल्ली में प्राचीन भैरव मनिदर कालकाजी में जब अपना जीवनवृत्त योग षिखरिणी यात्रा नामक ग्रन्थ का सम्पादन कर रहे थे, तब उन्होंने मुझे कृपापूर्वक आषीर्वाद स्वरूप जो समय दान दिया था, इन ग्रन्थों में से अनेक का दर्षन कराने का सौभाग्य बख्षा था। योग षिखरिणी यात्रा नामक इस ग्रन्थ की एक प्रति मेरे माता-पिता की नेपाल यात्रा के समय स्वयं के कृपा हस्त से लिखित पत्र सहित दी थी, जो मेरे पास उपलब्ध है। बहरहाल यह शोध का विषय है कि, गोरक्षनाथ द्वारा विरचित बताये गये इन ग्रन्थों में से कितने स्वयं गोरक्षनाथ के लिखे हुए हैं और कितने केवल उनके नाम से हैं? बहरहाल, योगी गोरक्षनाथ द्वारा विरचित गोरक्षषतकम नाथ सम्प्रदाय का एक मुख्य ग्रन्थ है और परम्परागत रूप से उन्हें षिव का अवतार कहा जाता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पष्चातय विद्वान जार्ज वेस्टन बि्रग्स ने उनके जन्म स्थान और काल के संबन्ध मेंं जानने का भागीरथ प्रयास किया। उनके शोध को यथारूप मेंं प्रस्तुत करना, विषय की गम्भीरता और उन महानुभावों की कीर्ति के साथ कपट ही सिद्ध होगा, किन्तु हम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अमूल्य पुस्तक नाथ सम्प्रदाय के निम्नांकित दो अन्तरों को महायोगी गोरक्षनाथ की वन्दना रूप मेंं अंकित करने का लोभ संवरण नहींं कर पा रहे हैं।
विक्रम संवत की दसवीं शताबिद मेंं भारतवर्ष के महान गुरु गोरक्षनाथ का आविर्भाव हुआ। शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावषाली और इतना महिमानिवत महापुरुष भारतवर्ष मेंं दूसरा नहींं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने मेंं उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैंं। भä अिन्दोलन के पूर्व सबसे शäषिली धार्मिक आन्दोलन गोरक्षनाथ का योगमार्ग ही था। भारतवर्ष की ऐसी कोर्इ भाषा नहींं है जिसमेंं गोरक्षनाथ संबन्धी कहानियां न पार्इ जाती हों। इन कहानियों मेंं परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत अधिक है परन्तु फिर भी इनमेंं एक बात स्पष्ट हो जाती है कि, गोरक्षनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे। उन्होंने जिस धातु को छुआ वही सोना हो गया। दुर्भाग्यवष इस महान धर्मगुरु के विषय मेंं ऐतिहासिक कही जाने लायक बातें बहुत कम रह गयी हैं। दन्तकथाएं केवल उनके और उनके द्वारा प्रवर्तित योगमार्ग के महत्त्व-प्रचार के अतिरिä कोर्इ विषेष प्रकाष नहींं देती।
उनके जन्मस्थान का कोर्इ निषिचत पता नहींं चलता। परम्पराएं अनेक प्रकार के अनुमानों को उत्तेजना देती हैं और इसीलियेे भिन्न-भिन्न अन्वेषकों ने अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को उनका जन्मस्थान मान लिया है। योगी सम्प्रदायाविष्Ñति मेंं उन्हें गोदावरी तीर के किसी चन्æगिरि मेंं उत्पन्न होना बताया है। नेपाल दरबार लायब्रेरी मेंं एक परवर्ती काल का गोरक्ष सहóनामस्तोत्र नामक छोटा सा गं्रथ है, उसमेंं एक श्लोक (असित याम्यां दिषिकषिचíेष: बढ़व संज्ञक:। तत्राजनि महामंत्र प्रसादत:।।) इसका आषय है कि, दक्षिण दिषा मेंं कोर्इ बढ़व नामक देष है वहीं महामंत्र के प्रसाद से महाबुद्धिषाली गोरक्षनाथ प्रादुभर्ूत हुए थे। संभवत: इस श्लोक मेंं उसी परम्परा की ओर संकेत है, जो योगसंप्रदायाविष्Ñति मेंं पायी जाती है। श्लोक मेंं बढ़व पद शायद गोदावरी तीर के प्रदेष का वाचक हो सकता है।
महायोगी गोरक्षनाथ के जन्मस्थान और काल का पता लगाने का प्रयास करने वाले अन्य प्रमुख विद्वानों मेंं पष्चातय विद्वान क्रुक्स, जी. ए. गि्रयर्सन तथा इटली निवासी कवि एल.पी. टेसीटरी का नाम भी विषेष उल्लेखनीय है। इन सभी महानुभावों ने योगी गोरक्षनाथ की रचनाओं और उनके समकालीन सन्तों व योगियों और स्थान विषेष पर महायोगी गोरक्षनाथ के प्रभाव के आधार पर उनका काल व स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया है। गोरक्ष टिल्ला के वैभव और प्रधानता के आधार पर जर्मन विद्वान डब्ल्यू. जे. बि्रग्स ने उन्हें पंजाब का होना अनुमानित किया है, तो गि्रयर्सन ने गोरक्षनाथ के षिष्य योगी धर्मनाथ के पेषावर का होने के आधार पर उन्हें पेषावर का होना बताया है साथ ही नेपाल को आर्य अवलोकितेष्वर के प्रभाव से मुä करवाकर नेपाल को शैव मत मेंं लाने के आधार पर गोरक्षनाथ को पषिचमी हिमालय का रहने वाला बताया है। कनिंघम नामक अंग्रेज इतिहासकार का मत है कि, जेहलम (झेलम) जिले मेंं बालनाथजी का टिल्ला सिकन्दर के भारत आने से भी पूर्व का है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि, ऐतिहासिक दृषिट से नाथ सम्प्रदाय का असितत्व कम से कम 326 र्इसा पूर्व से है। इस आधार पर योगी गोरक्षनाथ का समय र्इसा से कम से कम पांच सौ वर्ष पूर्व का होना चाहिये। इस कल्पना की पुषिट इस तथ्य से भी होती है कि, योगी भतर्ृहरि इतिहास प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य का बड़ा भार्इ था। यह वही विक्रमादित्य है जिसके नाम से विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ और यह विक्रम संवत आज भारतीय कालगणना का प्रमुख मानक है। भारतीय विद्वानों मेंं डा. रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक गुरु गोरक्षनाथ और उनका युग मेंं गोरक्षनाथ का समय आठवीं शताबिद का प्रारंभ माना है तो डा. श्यामसुन्दर दास ने भाषा के आधार पर गोरक्षनाथ का समय जगदगुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद के 150 वर्ष बाद का बताया है किन्तु उन्हींं के षिष्य सनन्दन ने षंकर दिगिवजय नामक पुस्तक मेंं मत्स्येन्æनाथ के परकाया प्रवेष विधा का उल्लेख करते हुए गोरक्षनाथ का समय शंकराचार्य से पूर्व का होना बताया है। नाथ सम्प्रदाय मेंं पूरण भगत नाम से प्रसिद्ध सिद्ध चौरंगीनाथ के आषीर्वाद से राजा शालिवाहन (सलवान) की छोटी रानी लूणा को पुत्र की प्रापित हुयी थी, जो राजा रसालू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस राजा रसालू का काल सातवीं शताबिद का अन्त व आठवीं शताबिद का प्रारंभ माना जाता है, इस आधार पर गोरक्षनाथ का काल सातवीं शताबिद सिद्ध होता है। डा. बड़थ्वाल ने गोरक्षनाथ का समय विक्रम संवत 1050 के आस पास मानते हुए उन्हें शंकराचार्य से पूर्व गुप्तवंष के राजाओं से जोड़ा है। मत्स्येन्द्रनाथ से उनके गुरु-षिष्य संबन्ध के आधार पर विद्वान उन्हें नौवीं शताबिद का होना बताते हैं। कबीर1, दादूदयाल2 और नानक से उनका संवाद उन्हें तेरहवीं चौदहवीं शताबिद मेंं होना सि़द्ध करता है तो दिगम्बर जैन सन्त बनारसीदास से शास्त्रार्थ सत्रहवीं शताबिद मेंं भी उनकी उपसिथति बताता है।
र्इस्वी शताबिदयों के इस काल खण्ड मेंं किसी मानव देहधारी के इतने लम्बे जीवन का असितत्व निष्चय ही अविष्वसनीय और असंभव है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस प्रसंग मेंं मनोवैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत करते हुए इनकी व्याख्या इस प्रकार करते हैंंं, कि परवर्ती सन्तों ने ध्यान बल से पूर्ववर्ती सन्त (योगी गोरक्षनाथ) के उपदिष्ट मार्ग से अपने अनुभवों की तुलना की होगी। वे अपने मत के समर्थन मेंं तर्क देते हुए कहते हैंं कि कबीर के साथ तो मुहम्मद साहब की बातचीत का ब्यौरा भी उपलब्ध है तो क्या इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि, कबीरदास और मुहम्मद साहब समकालीन थे? इस प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ के काल निर्णय को लेकर भी समस्त विद्वान असमंजस की सिथति मेंं हैं और यह कह पाने मेंं नितान्त असमर्थ हैं कि, वास्तव मेंं वे काल के किस खण्ड से संबंधित हैं?
निष्चय ही ऊपरोä विद्वानों ने अपने मत के समर्थन मेंं सषä तर्क प्रस्तुत किये हैं और उनके शोध मेंं त्रुटि की कोर्इ कल्पना भी नहींं की जा सकती। दर्षन और दार्षनिक इतिहास मेंं रुचि रखने वालों के लियेे इन विद्वानों की रचनाएं आने वाली पीढियों के लियेे सर्वकालिक प्रकाष स्तम्भ सिद्ध होंगी साथ ही नाथ सम्प्रदाय विषय को इतने क्रमबद्ध रूप मेंं लिपिबद्ध करने से नाथपंथ के अनुयायी सदा सदा के लियेे इनके ऋणी हो गये हैंंंं। किन्तु खेद की सीमा तक आष्चर्य है कि, इन विद्वानों की दृषिट पौराणिक तथ्यों पर क्यों नहींं गयी?
यह सुस्थापित तथ्य है कि, रामायण के एक महत्त्वपूर्ण चरित्र विष्णु के अंषावतार परषुराम महायोगी गोरक्षनाथ के षिष्य थे। इस महान चरित्र के साथ हनुमान की उपसिथ्ति महाभारत काल तक इस महाकाव्य मेंं वर्णित है। इसी भांति रामायण महाकाव्य के रचयिता महर्षि वाल्मीकि से लेकर उनकी षिष्य परम्परा मेंं महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास तक चार पीढि़याें क्रमष: महर्षि पराषर और महर्षि शä कि ही अन्तर है। पौराणिक काल गणना के अनुसार त्रेता युग की अवधि बारह लाख वर्ष और द्वापर युग की अवधि आठ लाख वर्ष बतायी गयी है। यह भी सुस्थापित तथ्य है कि, भगवान श्रीराम और श्रीÑष्ण के अवतार क्रमष: त्रेता और द्वापर युगों के उत्तराद्र्ध मेंं हुए हैं। वास्तविक काल गणना को छोड़़ भी दें तो भी दोनों अवतारों के मध्य आठ लाख (कêर हिन्दू मतावलमिबयों के अनुसार नौ लाख) वषोर्ं का अन्तर है। तो क्या इन आठ-नौ लाख वषोर्ं के मध्य महर्षि वाल्मीकि से लेकर महर्षि वेदव्यास तक केवल चार ही पीढि़यां थीं? यदि महाकाव्यों के उä महान चरित्रों की इतनी लम्बी आयु हो सकती है तो योगी गोरक्षनाथ की दीर्घायु का अनुमान युäयिुä मान लेने मेंं कोर्इ संषय करना उचित प्रतीत नहींं होता।
फिर एक दृषिट नाथ सम्प्रदाय के सुविख्यात बारह पंथों के प्रवर्तकों पर डालें तो प्रकट होता है कि, इस सम्प्रदाय के सत्यनाथीपंथ, कपिलानीपंथ, रामपंथ, ध्वजपंथ, नाटेष्वरीपंथ, गंगानाथीपंथ और धर्मनाथीपंथ क्रमष: बह्राा, कपिल मुनि, भगवान श्रीराम (अथवा परषुराम- कौन जानता है?), हनुमान, लक्ष्मण, तथा महाभारत के महा नायक भीष्म व युधिषिठर द्वारा प्रवर्तित किये गये हैंंं। यहां यह विचारणीय है कि, उä नामित महान चरित्र क्या गोरक्षनाथ के षिष्य अथवा उनके समकालीन थे? निष्चय ही यह एक कठिन प्रष्न है। क्योंकि तथ्य यह भी है कि, गोरक्षनाथ से पूर्व भी नाथ सम्प्रदाय मेंं षिव द्वारा प्रवर्तित बारह (कतिपय विद्वानों के अनुसार अट्टारह) पंथ थे और गोरक्षनाथ अथवा उनके षिष्यों द्वारा बारह पंथ और प्रवर्तित किये गये। इस प्रकार इस सम्प्रदाय मेंं कुल चौबीस (अथवा तीस) पंथ थे। अनुश्रुति है कि, षिव और गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित इन पंथों मेंं झगड़े बहुत बढ़ गये। तब गोरक्षनाथ ने अपने और षिव के छ:-छ: पंथों को लेकर बारह पंथों की पुनस्र्थापना की। उड़ीसा के विद्वानों की तो मान्यता है कि, नाथ-सम्प्रदाय के प्रभाव के कारण ही पुरी के पुरुषोत्तम का नाम जगन्नाथ पड़ा। यह भी कहा जाता है कि, गोरक्षनाथ ने ही पुरी के बड़ा अखाड़ा मठ की स्थापना की थी और वे जब वहां सिंहनाद (वस्तुत: यह लगभग डेढ़ से दो इंच लम्बी हरिण के सींग, चन्दन अथवा किसी पवित्र लकड़ी की खोखला व बेलनाकार ‘सींगी नामक वाधयन्त्र होता है जिसे योगी लोग अपनी जनेऊ मेंं पहनते हैं। सन्ध्योपासना के पष्चात योगी लोग इसे फूंक कर बजाते हैं। अत: यह शब्द सिंहनाद नहींं होकर सींगीनाद है) करते थे तो समुæ बावन हाथ पीछे हट जाया करता था और जगन्नाथजी का आसन हिलने लगता था। परिणामस्वरूप योगी गोरक्षनाथ को मनिदर के सिंहद्वार की दक्षिण दिषा मेंं स्थान दिया गया। नाथ सम्प्रदाय के सत्यनाथी पंथ की प्रधान गíी पुरी मेंं है और उड़ीसा के सोलह महन्तोंमठों मेंं भुवनेष्वर का कपाली मठ काफी महत्त्वपूर्ण है। इस मठ के पूर्वी द्वार के दक्षिण मेंं स्थापित एक षिलालेख के द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि, उड़ीसा के राजा कपिलेन्æ का राज्याभिषेक इसी मठ मेंं 26 जून 1435 को हुआ था।
प्रष्न यह है कि, इनमेंं से कौन गोरक्षनाथ से संबद्ध अथवा समकालीन है?
इतिहास इस संबद्ध मेंं मौन है और विद्वानों की लेखनी इस ओर दृषिटपात नहींं कर पायी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पष्चातय विद्वान डब्ल्यू. जे. बि्रग्स ने उä 12 पंथों की विस्तृत, तर्कयुä, सारपूर्ण और सर्वोपरि बहुत ही महत्त्वपूर्ण विवेचना की है। जिन बिन्दुओं पर वे चर्चा कर चुके हैं उन्हें उद्धृत करना हमारा उíेष्य नहींं है, तथापि कुछ अनछुए प्रसंगों को हमने ‘नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथ शीर्षक के अन्तर्गत उजागर करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत शीर्षक के अन्तर्गत प्रसंगवष उल्लेख करते हैंंं कि आचार्यजी ने अपनी मूल्यवान पुस्तक नाथ सम्प्रदाय मेंं कपिलमुनि (कपिलानीपंथ), लक्ष्मण (नाटेष्वरीपंथ), धर्मनाथ (युधिषिठर) तथा गंगानाथ (भीष्म पितामह) को गोरक्षनाथ के षिष्य होना बताया है। लक्ष्मण, हनुमान और सीता गोरक्षनाथ के षिष्य थे इसकी पुषिट ओडि़या साहित्य से होती है। तदनुसार वनवास समापित के पष्चात जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं तो उनकी गोरक्षनाथ से भेंट होती है। उनके षिष्यत्व मेंं आने के विषय मेंं होने वाले वार्तालाप के समय श्रीराम को पता लगता है कि, भरत, लक्ष्मण, हनुमान और सीता पहले ही उनके षिष्य बन चुके हैं और उनके द्वारा दी गयी योग की षिक्षा के बल पर ही उन्होेंने असाध्य कायोर्ं को करने की योग्यता प्राप्त कर श्रीराम कार्य को कर सकने मेंं सफल हुए हैंं। तब श्री राम भी उनके षिष्य बनते हैं।
‘गोरक्षनाथ रहस्य नामक पुस्तक में एक अन्य कथा अनुसार रावण वध के पश्चात अयोध्या लौटकर अपना राजकार्य व्यवसिथत करने के बाद अपनी तीनों माताओं सहित अपने गुरू वशिष्ठजी के पास जाकर ब्राह्राण हत्या के दोष से मुक्त होने का उपाय पूछते हैं। पुस्तक में उलिलखित श्रीराम व गुरू वशिष्ठजी के मध्य हुए साहितियक संवाद का सार यह है कि, गुरू वशिष्ठ श्रीराम को योगी गोरक्षनाथजी से योग की दीक्षा लेने का उपाय बताते हैं। गुरू वशिष्ठजी के बताये अनुसार सीता, राम, लक्ष्मण, हनुमान और राम-रावण युद्ध के सहभागी योगी गोरक्षनाथजी के पास जाते हैं जो उस समय पंचाल (वर्तमान पंजाब) के पशिचमोत्तर कोण में जेहलम नामक स्थान में जेहलम नदी के निकट सिथत पर्वत पर (वर्तमान में यह पाकिस्तान में जिला झेलम में है) पर तपस्यारत्त थे। श्रीराम द्वारा प्रार्थना किये जाने पर योगी गोरक्षनाथ द्वारा श्रीराम, लक्ष्मण तथा हनुमान का विधिवत कर्णच्छेद किया जाकर योगमार्ग में दीक्षित किया जाता है। तीनों का पÍनाम (नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होने वाले शिष्यों को गुरू द्वारा दिया जाने वाला नाम) क्रमश: श्रीराम का अचलनाथ (रामनाथ), शेषनाग का अवतार होने के कारण श्रीलक्ष्मण का नागनाथ (लक्ष्मणनाथ) तथा श्री हनुमान का बंकनाथ नाम रखा गया। श्री अचलनाथ (श्रीराम) द्वारा पात पर भोजन करने और अंजुलि से पानी पीने के कारण पतंजलि नाम पडा और इनके नाम से पातंजल योग प्रसिद्ध हुआ। श्री नागनाथ (श्रीलक्ष्मण) को टिल्ले की गदी पर आसीन किया। श्रीलक्ष्मण की दो शाखाएं चलीं। इनमें से टिल्ले पर रहने वाले नाटेश्वरी और अन्य स्थानों पर मठ स्थापित करने वाले दरियानाथी कहलाये। श्री बंकनाथ (श्रीहनुमान) द्वारा चलाया गया पंथ ध्वजनाथी कहलाया। सीता का कर्णच्छेद संस्कार नहीं किया गया, केवल आशीर्वाद और ध्यानयोग की दीक्षा दी गयी।
गर्ग संहिता में गर्ग ऋषि व भगवान श्रीकृष्ण के मध्य संवाद में श्रीकृष्ण द्वारा-
गोरक्षनाथ: को देव: को मन्त्रस्तस्य पूजने।
सेव्यते केन विधिना, तत्सर्वं ब्रूहि मे मुने।।
पूछने पर गर्ग ऋषि द्वारा-
श्रृणु कथा: सर्वा, गोरक्षस्य विधिक्रिया।
गोरक्षं च âदि ध्यात्वा, योगीन्द्रोसेविता नर:।।
विना गोरक्ष मन्त्रेण, योगसिद्धिर्न जायते।
गोरक्षस्य प्रसादेन, सर्वसिद्धिर्न संशय:।।
कहकर श्रीकृष्ण की जिज्ञासा को शान्त किये जाने का वृत्तान्त है। इसी भांति कल्पद्रुम तंत्र में भगवान श्रीकृष्ण व योगी गोरक्षनाथ के मध्य द्वारिका संवादषास्त्रार्थ पश्चात श्रीकृष्ण द्वारा रुकिमणी सहित योगेश्वर गोरक्षनाथ की वन्दना, श्रीÑष्ण और रुकिमणी के विवाह मेंं पुरोहित का कार्य योगी गोरक्षनाथ द्वारा करवाया जाना तथा और युद्ध जीतने के पष्चात राजसूय यज्ञ में आमनित्रत करने के लियेे युधिषिठर द्वारा भीम को योगी गोरक्षनाथ के पास भेजना भी उस काल मेंं उनकी उपसिथति को सिद्ध करता है। (उत्तर प्रदेष के गोरखपुर जिले में प्रसिद्ध गोरक्षनाथ मनिदर में एक भीमकाय पदचिà के बारे में कहा जाता है कि, राजसूय यज्ञ में गोरक्षनाथ को आमनित्रत करने के लिये जब भीम वहां पहुंचे तो गोरक्षनाथ समाधि में लीन थे। भीम द्वारा बहुत समय तक एक ही स्थान पर प्रतीक्षा करने के कारण पृथ्वी उस स्थान पर दब गयी जो चिरकाल से आज भी यथारूप है।)
महाकाव्य काल से र्इसा पूर्व के प्राचीन इतिहास मेंं विक्रमादित्य के बड़े भार्इ भतर्ृहरी और मध्यकाल की विष्व प्रसिद्ध प्रेम कहानी लैला-मजनूं के नायक मजनूं का गोरक्षनाथ से मिलना और जोगी (योगी) बन जाना, नेपाल के पृथ्वीनारायण शाह को अक्षुण्ण और निष्कण्टक राज्य के वरदान के साथ 10वीं पीढ़ी के पष्चात परिवार के नाष का अभिषाप, मेवाड़़ के संस्थापक बप्पा रावल को योगी गोरक्षनाथ द्वारा तलवार देकर विजयी होने का आषीर्वाद देना, गोरक्षनाथ के समकालीन योगी जलन्धरनाथ (ज्वालेन्द्रनाथ? कौन जाने) के षिष्य गोगाजी पीर आदि कितनी ही कहानियां विभिन्न कालखण्डों मेंं उनकी उपसिथति को सिद्ध करती है, जो उनके कालजयी होने के तथ्य को बल प्रदान करती है।
यधपि गर्गसंहिता, नारदपुराण, स्कन्दपुराण भी गोरक्षनाथ के संबन्ध मेंं भिन्न-भिन्न धारणाऐं देते हैं। हमारा प्रयास केवल कुछ अनछुए तथ्यों के प्रकाष मेंं विषय का पुनरीक्षण करना है। प्रसंगवष हम यहां सर्वप्रथम योगी गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के संबन्ध मेंं प्रचलित कथाओंं को सार रूप मेंं प्रस्तुत करेंगे इतना अवष्य है कि, इन कथाओंं को कालक्रम के अनुरूप क्रमबद्ध करना पुन: एक जटिल कार्य है अत: क्रम की औपचारिकता का पालन नहींं करने का हमेंं खेद है।
1. क्योंकि गोरक्षनाथ को षिवगोरक्ष नाम से मंत्र स्तुति की जाती है अत: सर्व प्रथम गर्ग संहिता मेंं आये आख्यान उद्धृत करना विषय के प्रति एक उत्तरदायित्व है। गर्गसंहिता के अनुसार देवताओं ने महादेव षिवषंकर से प्रष्न किया कि को•सौ गोरक्षनाथो•सित? किम मन्त्रस्तस्य पूजने अर्थात हे महेष्वर! गोरक्षनाथ कौन है और उनकी पूजा के लियेे क्या मंत्र है? तो भगवान षिव ने कहा अहमेवासिम गोरक्षो मदरूपं तन्निबोधत,। योगमार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम। अर्थात मैं ही गोरक्षनाथ हूं, मेरा ही रूप गोरक्षनाथ को जानो, लोककल्याणकारी योग मार्ग का प्रचार करने के लियेे मैंंने ही गोरक्षनाथ का अवतार लिया है।
वैषाखी-षिव-पूर्णिमा-तिथिवरेवारे षिवम³गले।
लोकानुग्रह-विग्रह: षिवगुरुर्गोरक्षनाथो•भवत।।
2. स्वयं गोरक्षनाथ भी महार्थमंजरी के स्वोपज्ञ भाष्य मेंं कहते हैं ”गोरक्षोलोकधिया देषिकदृष्टया महेष्वरानन्द:। उन्मीलयामि परिमलमन्तग्रहिनं महार्थमंजर्याम।। अर्थात ‘गो की रक्षा करने से लोग मुझे गोरक्षनाथ कहते हैंं, किन्तु गुरुदेव मत्स्येन्æनाथ की दिव्य दृषिट से महेष्वर षिव का अवतार होने के कारण मेरा अन्वर्थ नाम महेष्वरानन्द नाथ है। उल्लेखनीय है कि, षिवस्वरूप और आनन्दमय होने से सिद्ध पुरुषों के नाम के अन्त मेंं आनन्द लगता है और ब्रह्रास्वरूप होने के कारण नाथ पद लगता है। षिव के एक सौ आठ अवतारों मेंं सबसे प्रमुख होने के कारण गोरक्षनाथ को षिवगोरक्ष नामक महामंत्र के रूप मेंं जप किया जाता है।
3. स्कन्दपुराण के ब्रह्राा संवाद खण्ड मेंं भी गोरक्षनाथ अवतार की कथा प्रसंग इस प्रकार है कि, किसी ब्राह्राण के यहां गण्डान्त नक्षत्र मेंं उत्पन्न होने से अषुभ और अनिष्टकारी जानकर उसने अपने पुत्र को समुद्र मेंं फेंक दिया। वहां एक मछली उस बच्चे को निगल गयी किन्तु र्इष्वरीय चमत्कार द्वारा वह बच्चा वहां भी जीवित रहा।
उधर एक बार माता पार्वती ने भगवान शंकर के गले मेंं नरकपालों की माला का रहस्य पूछा तो भगवान शंकर ने कहा कि वे नरकपाल सती पार्वती के पूर्वजन्मों के हैं। इस पर उन्होंने अपने बार बार मरने और भगवान षिव के अमरत्व का कारण पूछा तो सदाषिव उन्हें डोंगी पर बैठकर समुæ के मध्य एकान्त मेंं ले गये और अमर कथा (आत्मा की अनष्वरता का ज्ञान अर्थात योग विधा) बताने लगे। कथा सुनते-सुनते सती पार्वती योगनिद्रा मेंं लीन हो गयीं और डोंगी के नीचे मछली के पेट मेंं छिपा हुआ बालक हुंकारे देता रहा। नींंद खुलने पर सती पार्वती ने षिव से कहा कि नींद आ जाने के कारण वह सम्पूर्ण कथा नहींं सुन सकी। इस पर षिव ने तीन ताली बजाकर ब्रह्रााण्ड को जीवरहित किया, किन्तु अमरकथा सुन लेने के कारण वह मत्स्य बालक जीवित रहा। चोरी से योगविधा का ज्ञान प्राप्त करने के कारण षिव ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दिया कि एक समय वह इस ज्ञान को भूल जायेगा।
कथा के दूसरे भाग मेंं षिव के शाप से त्रस्त मत्स्येन्द्र यहां वहां घूमते हुए योगाभ्यास व शैव मत का प्रचार करते रहे और कुछ समय बाद षिव की कृपा प्राप्त करने के लियेे षिव आराधना करने लगे। उनके द्वारा की गयी घोर तपस्या के परिणामस्वरूप षिव उनके समक्ष प्रकट हुए और वरदान मांगने के लियेे कहा। इस पर मत्स्येन्द्र ने उनसे उनका ही स्वरूप (अर्थात षिव का योगी वेष), जगत के कल्याण के लियेे योग विधा का विस्तार और तत्त्वज्ञान की विस्मृति के शाप से मुकित का वरदान मांग लिया। इस घटनाक्रम के पष्चात षिव द्वारा मत्स्येन्द्र को अपना योगी वेष, योग विधा का विस्तार करने का आदेष और स्वयं उनके षिष्य रूप मेंं मत्स्येन्द्रनाथ का उद्धार करने का वचन दिया जाना इस अमरकथा के प्रसंग में गोरक्षनाथ अवतार की दूसरी कड़ी है।
अगले घटनाक्रम मेंं पुत्राकांक्षी एक ब्राह्राण स्त्री ने योगी से पुत्र प्राप्त करने के लियेे वरदान मांगा। इस पर योगी मत्स्येन्द्रनाथ ने उसे अपनी झोली मेंं से विभूति देकर यह वचन लिया कि बारह वर्ष पष्चात वह अपने पुत्र को उनके षिष्यत्व मेंं दे देगी। राख से पुत्र कैसे उत्पन्न होगा यह सन्देह करके उसने विभूति गोबर मेंं फेंक दी। बारह वर्ष के पष्चात मत्स्येन्द्रनाथ पुन: आते हैं और उस स्त्री से अपने पुत्र को उनके षिष्यत्व मेंं देने के वचन की याद दिलाते हैं। स्त्री द्वारा राख को गोबर के स्थान पर फेंक देने की बात कहने पर योगी मत्स्येन्द्रनाथ उस स्थान पर जाकर गोरक्ष नाम से आवाज लगाते है तो एक बारह वर्ष का बालक आदेष-आदेष कहता हुआ प्रकट होता है। यही गोरक्षनाथ का प्राकटय होता है, जो बाद मेंं मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देष के स्त्री राज्य के चंगुल से निकाल कर पुन: योगमार्ग मेंं लाते है।
4. स्कन्दपुराण के ही केदारखण्ड के 42वें अध्याय मेंं भगवान षिव, जगदमिबका माता पार्वती के पूछने पर गोरक्षनाथ के स्थान को इंगित करते हैंंं।
तस्माद दक्षिणतो देवि गोरक्षाश्रमरक्षक:।
यत्र सिद्धो महायोगी गोरक्षो वसते•निषम।।1।।
तलिल³गन्तु प्रवक्ष्यामि श्रृणु पुण्यतमं स्थानम,
महातप्तजलं तत्र वर्तते सर्वदेव हि।।2।।
तत्र सिथतस्सप्तरात्र जपन वेै षिवमुत्तमम,
सिद्धो भवति देवेषि! यथा गोरक्ष उत्तम:।।3।।
अर्थात उससे दक्षिण की ओर अत्यन्त रमणीय एवं पवित्र गोरक्ष आश्रम है। जहां पर सिद्धाधिराज गोरक्षनाथ निवास करते हैंंं। उस महापीठ का चिहन बताता हूं- यह अत्यन्त पुण्यतम स्थान है जहां सदा अत्यन्त उष्ण जल विधमान है। जो पुरुष सात रात षिव का जप करता हुआ वहां निवास करता है वह साक्षात गोरक्षनाथ जैसा हो जाता है।
5. स्कन्दपुराण के केदार खण्ड मेंं ही अध्याय 45 तथा 46 मेंं लिखा है कि,
नित्यनाथादय: सिद्धा अत्रैव तपतत्परा:।
सिद्धिम्प्राप्ता: पुरा देवि मादृषास्ते न संषय:।।1।।
न तस्य भयलेषो•सित तिष्ठतस्त्र पीठके,
शीघ्रं वै लभते सिद्धिं यथा गोरक्षकादय:।।2।।
अर्थात पहले नित्यनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) तथा गोरक्षनाथ साधकों को वांछित फल देने मेंं समर्थ हुए सब मेरे जैसे बने तथा जप परायण इस पीठ पर रहने वाला पुरुष भी पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है इसमेंं सन्देह नहींं है।
6. पुन: स्कन्दपुराण के केदार खण्ड के अध्याय 74 मेंं नवनाथों मेंं योगी गोरक्षनाथ का उल्लेख इस प्रकार मिलता है।
नव नाथा:समाख्यातास्तत्र श्री आदिनाथक:।
अनादिनाथ: कूर्माख्यो भवनाथस्तथैव च।।
सत्यसन्तोषनाथौ तु मत्स्येन्द्रो गोपीनाथक:।
गोरक्षो नव नाथास्ते नादब्रहमरता: सदा।।
7. स्कन्दपुराण के ही हिमत्वखण्ड मेंं योगी गोरक्षनाथ की तपस्थली मृगस्थली नेपाल महात्म्य मेंं गोरक्षनाथ को सिद्धियों का दाता कहा गया है। प्रासंगिक श्लोक 52 से 59 को यथारूप यहां प्रस्तुत किया जा रहा है तथा उनका संक्षिप्त भावार्थ इस प्रकार है कि, जो सिद्धाचल मृगस्थली मेंं तीन रात्रि निवासरत रहकर योगी गोरक्षनाथ का स्मरण करता है वह स्वयं सिद्धयोगी गोरक्षनाथ के प्रसाद से Ñतार्थ होकर सदा के लियेे संसार मेंं आदर्ष बन जाता है। भगवान पषुपतिनाथ की इस परम पवित्र विहार स्थली मेंं कार्तिक मास की Ñष्ण चतुर्दषी मेंं जो पुरुष परिक्रमा करता है, वह एक एक पद पर निष्पाप होता हुआ स्वर्णिम पुण्य को प्राप्त करता है। श्लोक इस प्रकार है:-
ब्रहमद्वीपे महातीर्थे स्नात्वा दीपोप्रदीयते।
कार्तिकस्य चतुर्दष्यां शुक्लायां वा विषेषत:।।52।।
गोरक्षनाथो योगीन्द्रो योगेनात्र समाश्रित:।
मत्स्येन्द्रेण समं नित्यं चौर³ग्याधैष्च योगिभि:।।53।।
तेषां योगष्च संसिद्धस्तत्र मृगस्थले द्विज।
पषुपते प्रसादेन योग: प्रापुरथार्हणम।।54।।
नानासिद्धगणैर्नित्यमत्रागत्य सुभकितत:।
प्रारब्धस्तैर्महायोगो गोरक्षस्य प्रसादत:।।55।।
कार्तिकस्य चतुर्दष्यां Ñष्णायां दृष्यते बुध:।
सिद्धाश्रमें पादुकास्य निष्पापास्ते न संषय:।।56।।
त्रिरात्रंवसते तत्र तं गोरक्षं स्मरन धिया।
योगीष्वरो भवेदाषु सिद्धदेहो भवेत्सदा।।57।।
अत एव गरिष्ठं च हयेततक्षेत्रविरूपदृक।
सिद्धानामारमं शाष्वत पषुपतेर्विहारकम।।58।।
मृगस्थलीगिरिं भ्राम्य व्रीहिन विक्षेपयेत्Ñतम।
सुवर्णरतिकातुल्यं ब्रीहिमेकं च युकितमत।।59।।
8. स्कन्दपुराण के एक अन्य स्थान पर उलिलखित है कि,
गोरक्षनाथस्य तप: प्रभावादाÑष्टचेता: किल चक्रवर्ती।
सहस्रबाहुर्वसुधाधिपोडयं जगाम गोरक्षगुरुं शरण्यम।।
योगस्य जिज्ञास्यतमं विदित्वा मार्गं महेषस्य गुरो: सकाषात।
जग्राह सोमान्वयचक्रवर्ती गोरक्षनाथस्य बभूव षिष्य।।
अर्थात सम्पूर्ण पृथ्वी के चक्रवर्ती चन्द्रवंषी सम्राट सहस्रबाहू भगवान गोरक्षनाथ के तप से आÑष्ट होकर उनके पास गये और जिज्ञासा से अभिप्रेरित होकर उनके षिष्य बनकर आदिनाथ परम्परा से चले आ रहे योगमार्ग को ग्रहण किया।
किंवदंती है कि, सहस्त्रबाहू रोजाना अपनी एक भुजा काटकर भगवान षिव को अर्पित किया करते थे और योग से प्राप्त अजेय शकित से उनकी कटी हुयी भुजा पुन: अपने स्थान पर जुड जाया करती थी। कहीं-कहीं यह भी पढ़ने को मिलता है कि, सहस्त्रबाहू अपनी सौ भुजाओं से जब वाध यन्त्र बजाया करता तो उस संगीत पर प्रसन्न होकर महादेव षिवषंकर नृत्य किया करते थे। प्रासंगिक नहीं होने से सहस्त्रबाहू की तपस्या के सन्दर्भ में हमने कोर्इ अधिक पड़ताल करने का उधम नहीं किया। किन्तु जयपुर से 45 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध तीर्थ सामोद क्षेत्र मालेष्वर में तीन ओर से आच्छादित पहाडियों की तलहटी में मालेष्वर महादेव मनिदर की विषेषता यह है कि, इस मनिदर में स्थापित षिवलिंग सूर्य के दक्षिणायण के समय यह षिवलिंग दक्षिण की ओर तथा उत्तरायण काल में उत्तर की ओर झुकाव लेता रहता है।श्इस षिवलिंग के गर्भगृह के ठीक सामने अपने सौ हाथों से वाधयन्त्र बजा रहे सहस्त्रबाहू की प्रतिमा है। सहस्त्रबाहू की वाधयन्त्र बजाती हूुर्इ प्रतिमा और षिवलिंग का उत्तर-दक्षिण में झूमना इस कथा की वास्तविकता को बल देता प्रतीत होता है। यहां प्रष्न यह नहींं है कि, सत्य क्या है? किन्तु योग षकित या र्इष्वरीय वरदान से शरीर के अंगों के इस प्रकार जुड़ने की अनेक कथाएं पुराणों मेंं हैं। रक्तासुर, बीजासुर, जरासंध और रावण इसके सुविदित उदाहरण हैं।
9. षिवपुराण के सातवें खण्ड के अध्याय प्रथम मेंं ब्रहमाजी ने षिव के अवतारों का वर्णन करते हुए गोरक्षनाथ को षिव का अवतार बताया है।
षिवो गोरक्षरूपेण योगषास्त्रं जुगोप ह।
यमाध³गैर्यथास्थाने स्थापिता योगिनो•पि च।।1।।
अर्थात भगवान षिव ने गोरक्ष रूप मेंं आकर योग और योगियों की रक्षा की तथा योगषास्त्र की सत्यता को यम-नियम आदि अंगों द्वारा प्रमाणित किया। जैसा कि इसी अध्याय मेंं हमने पूर्व मेंं चर्चा की है कि, गर्गसंहिता के अनुसार देवताओं द्वारा महादेव षिवषंकर से प्रष्न करने पर उनके द्वारा कहा गया कि
अहमेवासिम गोरक्षो मदरूपं तनिनबोधत।
योगमार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम।।
अर्थात मैं ही गोरक्षनाथ हूं, मेरा ही रूप गोरक्षनाथ को जानो, लोककल्याणकारी योग मार्ग का प्रचार करने के लियेे मैंने ही गोरक्षनाथ का अवतार लिया है। और जिस दिन षिव का गोरक्षनाथ रूप मेंं प्राकटय हुआ उसको योगी प्रवर नरहरिनाथ ने अपनी अमूल्य Ñति योग षिखरणी यात्रा मेंं इस प्रकार इंगित किया है।
वैषाखी-षिव-पूर्णिमा-तिथिवरे वारे षिवे म³गले।
लोकानुग्रह-विग्रह: षिवगुरुर्गोरक्षनाथो•भवत।।
10. स्कन्दपुराण के अध्याय 51 मेंं वर्णित ब्रहमा और देवर्षि नारद के मध्य गोरक्षनाथ अवतार कथा नाथयोगियों मेंं इस प्रकार प्रचलित है कि, मत्स्येन्द्रनाथ को शाप मुकित के लियेे दिये हुए वरदान को चरितार्थ करने के विचार से करुणामय अमिताभ भगवान आषुतोष ने माता पार्वती के अन्त:करण को प्रेरित किया और पार्वती ने भगवान षिव से अभिमान पूर्वक कहा कि:- हे महादेव, जहां-जहां आप है वहां-वहां मैं आपसे पृथक नहींं हूं। मेरे बिना आपकी कोर्इ पृथक सत्ता नहींं है। आप विष्णु हैं तो मैं लक्ष्मी हूं, आप महेष्वर हैं तो मैं महेष्वरी हूं, आप षिव हैं तो मैं शकित हूं, आप इन्द्र हैं तो मैं इन्द्राणी, आप वरुण हैं तो मैं वारुणी, आप पुरुष हैं तो मैं प्रकृति और आप ब्रहम हैं तो मैं माया। अर्थात, आपका असितत्त्व कहीं भी मुझसे पृथक नहींं है।
इस पर भगवान षिव कहते हैंं कि:- हे पार्वती, जहां जहां तुम हो वहां वहां मैं हूं यह कथन सत्य है किन्तु यह कथन सत्य नहींं है कि, जहां जहां मैं हूं वहां वहां तुम मेरे साथ हो। जिस प्रकार जहां जहां घट है वहां मृत्तिका अवष्य है किन्तु जहां जहां मृत्तिका है, उन समस्त स्थानों पर घट नहींं है। जिस प्रकार आकाष सभी पदाथोर्ं मेंं व्यापक है किन्तु सभी पदार्थ आकाष मेंं व्यापक नहींं है। इसी प्रकार मैं तो तुम्हारे असितत्त्व मेंं एकात्म हूं किन्तु मेरा एक रूप ऐसा भी है जहां तुम मेरी अद्र्धांगिनी के रूप मेंं मेरे साथ नहींं हो। मेरे उस स्वरूप मेंं मैंं केवल स्व मेंं सिथत हूं। यह कह कर भगवान षिव ने स्व तत्त्व को दो भागों मेंं विभाजित कर दिया। उनका एक रूप कैलाष पर्वत पर यथावत रहा जबकी दूसरा रूप गोरक्षनाथ के रूप मेंं अन्यत्र एकान्त मेंं तपलीन हो गया।
तदनन्तर एक दिन षिव व पार्वती भ्रमण करते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां चारों ओर अनोखा वातावरण है। पार्वती के पूछने पर षिव किसी योगी द्वारा उस स्थान पर तपस्यारत होना बताते हैं। पार्वती उस योगी की परीक्षा लेने की आज्ञा लेती है और अपनी माया से नाना प्रकार से उस योगी को लुभाने का प्रयास करती हैं, किन्तु वह योगी उन्हें केवल मां का संबोधन देता है। पार्वती उस योगी को आषीर्वाद देकर पुन: षिव के पास लौटती है और षिव से उस योगी के बारे मेंं पूछती है कि, तपलीन वह कौन हैं जो उनकी माया शकित के प्रभाव से भी परे है। तब षिव उन्हें बताते हैं कि, वह गोरक्षनाथ है, जो उनका ही दूसरा रूप है और इस रूप मेंं पार्वती उनके साथ नहींं हैं। जिस प्रकार प्रकाष और प्रकाषक को अलग नहींं किया जा सकता उसी प्रकार षिव और गोरक्ष मेंं भेद नहींं किया जा सकता। उनका यह रूप समस्त देवताओं और मनुष्यों का इष्ट है, जो माया से परे, काल का भी काल और समयापेक्षित अनेक रूपों से प्रकृति चक्र का संचालक है। संसार के कल्याण तथा वेद, गौ व पृथ्वी की रक्षा के लियेे ही उन्होंने गोरक्ष रूप धारण किया है। इस रूप मेंं पार्वती सर्वथा उनके साथ नहींं है।
11. गोरक्ष विजय नामक पुस्तक मेंं यही कथा एक अन्य रूप मेंं इस प्रकार है कि, आदिनाथ भगवान षिवषंकर के पष्चात चार सिद्ध क्रमष: मीननाथ, गोरक्षनाथ, हाडिपा तथा कान्हुपा उत्पन्न हुए। पार्वती द्वारा षिव से इन चारों सिद्धों की परीक्षा लेने की अनुमति मांगी गयी और आज्ञा मिलने पर भुवनमोहिनी रूप धारण करके चारों सिद्धों को उनके द्वारा अन्न परोसा गया। उस अवसर पर चारों सिद्धों के मन मेंं अलग-अलग विचार आये। मीननाथ ने सोचा कि ऐसी नारी का संग प्राप्त हो तो मैं आनन्द से समय व्यतीत करूं। इस पर माता पार्वती ने शाप दिया कि तुम ज्ञान को भूलकर कदली देष मेंं सुन्दरियों के साथ विहार करोगे। हाडिपा ने एसी सुन्दरी के घर झाडू लगाने को भी श्रेयष्कर समझा। इस पर उसे शाप मिला कि वह रानी रूपमती के घर झाडूदार बने। कान्हुपा ने ऐसी सुन्दरी के लियेे प्राण देकर भी अपने को Ñतार्थ माना। इस पर उसे शाप मिला कि वह तुरमान देष मेंं हाडूका बनेगा। किन्तु गोरक्षनाथ ने सोचा कि ऐसी सुन्दरी मेरी मां होनी चाहिये। इस पर सती पार्वती ने अन्य कर्इ प्रकार से उनकी परीक्षा ली पर वह सभी मेंं खरे उतरे। इस पर पार्वती उन्हें कालजयी होने का आषीर्वाद देती है।
12. ब्रहमाण्डपुराण के ललितापुर वर्णन मेंं हयग्रीव संवाद मेंं गोरक्षनाथ को योगियों मेंं प्रमुख बताते हुए उनकी उपसिथति सदैव वायुमण्डल में बतायी गयी है।
तस्य चोत्तरकोणे तु वायुलोको महाधुति:।
तत्र वायुषरीराष्च सदानन्दमहोदया।।1।।
सिद्धा दिव्यर्षयष्चैव, पवनाभ्यासिनो•परे।
गोरक्षप्रमुखाष्चान्ये, योगिनो योगतत्परा:।।2।।
अर्थात उसके उत्तर कोण मेंं महाधुति नामक वायुलोक है जिसमें पवन अभ्यासी और योगियों के प्रमुख गोरक्षनाथ अन्य दिव्य ऋषियों के साथ सदा आनन्द मेंं मग्न रहते हैं। इससे प्रकट होता है कि, वायुलोक मेंं गोरक्षनाथ अब भी विधमान है।
13. मार्कण्डेयपुराण मेंं योगी गोरक्षनाथ के बारे मेंं कहा गया है कि,
द्विधा हठ: स्यादेकस्तु गोरक्षादिसुयोगिभि:,
अन्यो मृकण्डुपुत्राधै: साधितो हठसंज्ञक:।।
अर्थात, हठयोग दो भागों मेंं विभक्त है। एक विभाग की केन्द्र शकित महायोगी गोरक्षनाथ है तथा दूसरे की केन्द्र शकित चिरायु मार्कण्डेय आदिपद से सिद्ध बुद्धनाथ हैं।
महायोगी गोरक्षनाथ के प्राकटय के संबंध में इतनी कथाओं में से किसी एक पर बुद्धि को सिथर कर पाना बहुत दुविधापूर्ण और विवाद का विषय होगा किन्तु, महायोगी गोरक्षनाथ के गोबर से प्रकट होने की कथा निसन्देह उनकी गरिमा व प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने के उददेष्य से प्रचारित की गयी प्रतीत होती है। सर्वोपरि तथ्य यह है कि रसायनों आधारित उर्वरकों विहीन और र्इंधन के मुख्य स्त्रोत स्वरूप प्रयोग किये जाने वाले तत्कालीन कृषि प्रधान भारत भूमि में निरन्तर बारह वर्ष तक गोबर एकत्रित करना किसी भी दृषिटकोण से स्वीकार नहीं है। द्वितीयत: नाथयोगियों के नाम उनकी किसी न किसी विषेषता से संबद्ध होते हैं उदाहरणार्थ कैलाष का स्वामी होने से कैलाषनाथ, अमरत्व प्राप्त होने के कारण अमरनाथ, जगत का स्वामी होने से जगन्नाथ, द्वारिका का स्वामी होने से द्वारिकानाथ अंगविहीन होने के कारण चहुरंगीनाथ (चौरंगीनाथ) आदि। इसी प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ का गोबर से प्रकट होने पर गोबरनाथ संज्ञा से परिचय होना चाहिये था। गोरक्ष और गोबर में संज्ञा, पर्याय, व्याकरणीय त्रुटि, विकृत, अपभ्रंष, मुख सुविधा, स्थानीय उच्चारण अथवा किसी भी प्रकार कोर्इ संबंध स्थापित नहीं होता। स्पष्ट है कि कानों में कुण्डल धारण करने वालों को दर्षनी साधू के स्थान पर कनफटा कहकर उपहास करने की मानसिकता वाले समूह द्वारा ही गोरक्ष को गोबर से प्रकट होने की कथा रची गयी जिससे कि समयान्तर में इस विषेषण के आधार पर इस नाम को विकृत किया जा सके हालांकि वे गोरक्षनाथ को गोबरनाथ के रूप में स्थापित नहीं कर सके। कुल मिला कर कमल, कुमुदिनी और जलकुम्भी में भेद दृषिट रखने वाले पणिड़त को यदि चार चाण्डाल मिल कर उसके कान्धे पे रखी हुर्इ दान की बछिया को कोर्इ शूद्र पशु बता कर ठग लें तो उसमें दोष उन चाण्ड़ालों की कुटिलता का नहीं वरन उस पणिड़त के पाणिड़त्य की अपूर्णता का है। नाथयोगियों की गरिमा को लजिजत करने और उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने के इस प्रकार के और भी कुतिसत प्रयास हुए हैं जो यथा स्थान उल्लेख किये गये हैं।
प्रसंंगवष यहां गोरक्ष पद पर विचार किया जाना समीचीन होगा। विचार के लियेे व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवचन तथा व्यवहार को दृषिटगत रखना होगा।
वेदज्ञ पूज्य श्रीअनिरूद्धाचार्य वेंकटाचार्यजी महाराज ने गो पद के निर्वचन, व्युत्पत्ति और अनेक अथोर्ं का रहस्ययुक्त प्रतिपादन वेद की कठ, मैत्रायणी शाखाओं और वेद की ताण्डय, जैमिनीय, शतपथ आदि ब्राह्राण ग्रन्थों की श्रुतियों के सन्दर्भ से किया है। सामवेद के ताण्डय ब्राह्राण में गो शब्द का निर्वचन गोवय तिरोभावे धातु से इस श्रुति में निम्नानुसार है
गवा वै देवा असुरान एभ्यो लोकेभ्यो•नुदन्त।
यद्वै तददेवा असुरान एभ्यो लोकेभ्यो गोवयन तदगोर्गोत्वम।
अर्थात देवों ने गवा – गो-प्रण एवं गो-प्राणी इन दोनों से किंवा तीनो लोकों से असुरों को भगा दिया। अर्थात असुरों का विनाश गो का गोत्व है। गो शब्द के इस निर्वचन के रहस्य का आंकलन श्रुति में निर्दिष्ट देव, असुर और गो के स्वरूप के वास्तविक ज्ञान के बिना कठिन है। अत: इन तीनों के स्वरूप का संक्षिप्त निरूपण प्रस्तुत है।
वेद में प्राणा वाव देवता: श्रुति के आधार से ऋषि, पितर, देव, असुर, गन्धर्व, मनुष्य और पशु भेद से सात प्रकार के प्राणों को देवता कहा गया है। इनके पीत, शुक्ल एवं कृष्ण आदि भिन्न-भिन्न रंग हैं। इनमें शुक्ल प्राण देव एवं कृष्ण प्राण असुर हैं। देवों का आवास सूर्यमण्डल है। असुरों का आवास पृथ्वी-मण्डल है। देवों की संख्या तैंतीस और असुरों की संख्या निन्यानवे है। सूर्य की एक-एक शुक्ल रशिम में सभी देव और पृथ्वी की छाया की प्रत्येक कृष्ण रशिम में असुर निवास करते हैं।
इन उभय देव एवंं असुरों से विश्व के सभी उच्चावच पदाथोर्ं का निर्माण होता है। निर्माण के समय स्व-स्व जागरण एवं परस्वाप के लिये देवासुर युद्ध होता है। जिस पदार्थ में देवों की विजय अर्थात जागरण और असुरों की पराजय अर्थात स्वाप होता है वह पदार्थ देवमय होता है। जिस पदार्थ में असुरों की विजय अर्थात जागृति और देवों की पराजय अर्थात स्वाप होता है वह पदार्थ असुरमय हो जाता है। निष्कर्ष यह कि विश्व के सकल पदाथोर्ं में देवता देव भाव का और असुर असुरभावों का संचार करते हैं।
देव तथा असुर के स्वरूप के संक्षिप्त निरूपण अनुसार सत्यं श्रीज्र्योतिरमृतं सुरा: अर्थात सत्य, श्री, ज्योति, और अमृत देव तथा असत्यं पाप्मा तमो मृत्युरसुरा: अर्थात असत्य, पाप्मा, तम और मृत्यु असुर भाव हैं। देवमय पदाथोर्ं के उपयोग से हमारे अध्यात्म, शरीर, मन, बुद्धि, प्राण एवं आत्मा में देव भावों का और असुरमय पदाथोर्ं के उपयोग से असुर भावों का संचार होगा। इसीलिये शास्त्रों में खाध-अखाध, पेय-अपेय और गम्य-अगम्य आदि व्यवस्थाएं दी गयी हैं।
देव व असुर के स्वरूप के संक्षिप्त निरूपण के पश्चात गो पद के निरूपण करते हैं। ऐतरेय ब्राह्राण की श्रुति आदित्या वा गाव: यह प्रमाणित करती है कि, तम नामक असुर भाव की विनाशिनी शकित जो सूर्य में है वह गो है। शतपथ ब्राह्राण में गम्लृ गतौ धातु से गो का निरूपण इस प्रकार किया गया है- इमे वै लोका गौ:! यद्धि किंचन गच्छति इमांल्लोकान गच्छति। इस आधार पर गच्छति इति गौ:, गम्यते इति गौ: तथा अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा के अनुसार अथ गोवर्ै सार्पराज्ञी अर्थात गो का अर्थ गतिमान अथवा गतिशील होना है। विस्तृत अर्थ में देखें तो ब्रह्रााण्ड सहित समस्त गतिशील पदाथोर्ं की संज्ञा गो है। इस अर्थ में अथ इयं पृथिवी वै सार्पराज्ञी अर्थात यह पृथ्वी भी गतीशील पदाथोर्ं की रानी है। पृथ्वी की गतिशीलता का वर्णन प्रख्यात खगोलविद विद्वान श्री आर्यभÍ ने आर्यभÍी ग्रंथ में इस प्रकार किया है-
अनुलोमगतिनर्ौस्थ: पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत।
अचलानि भानि तद्वत समपशिचमगानि लंकायाम।।
अर्थात गतिशील नौका में बैठा हुआ और सीधा जाता हुआ व्यकित तटस्थ अचल सिथर वृक्ष आदि वस्तुओं को पीछे जाता हुआ देखता है, वैसे ही गतिशील पृथ्वी पर बैठा हुआ व्यकित तारामण्डल को पशिचम में जाता हुआ देखता है। पृथ्वी गतिशील है अत: गो पदवाची है। न्यायदर्शन में तरंग-वीचि-न्याय से वाक की गतिशीलता का वर्णन किया गया है, अथ वाग्वै सार्पराज्ञी अर्थात वाक भी गतिशीलों में रानी है।
गच्छति इति गौ: इस निर्वचन से गो शब्द के अनेक अर्थ तिलक आदि कोश में दिये गये हैं, वे सभी अर्थ गतिशील होने से गो कहलाते हैें। इस प्रकार शब्दकोष के सन्दर्भ मेंं वज्र, जल, बैल, गाय, दिशा, सुख, स्पर्श, सत्य, चन्द्र, स्वर्ग, बाण, पषु, वाणी, नेत्र, किरण, पृथ्वी, जल, सूर्य, यज्ञ, सुरभि आदि गो पद के वाच्य हैं।
गो पद के निरूपण के पश्चात गोरक्ष पद की विवेचना करेें तो व्याकरण के दृषिटकोण से योगी प्रवर नेपाल राजगुरू श्री नरहरिनाथ के अनुसार गां रक्षतीति गोरक्ष:, रक्षतीति रक्ष:, गवां रक्ष गोरक्ष:, यावद- अर्थात गो पदवाच्य की जो रक्षा करता हो उसे गोरक्ष कहते हैंं। इस प्रकार गो पद के जितने भी अर्थ हैं उन अथोर्ं की रक्षा करने वाले का नाम गोरक्ष है। उपयर्ुक्त संज्ञा वाले संज्ञियों के रक्षाकर्ता का नाम गोरक्ष है। उपमिति के करण को उपमान कहते हैंं। उपमान उपमिति का असाधारण कारण है जिसका भावार्थ संज्ञा संबन्धी ज्ञान है। यथार्थ और सत्यवक्ता का नाम आप्तवचन है। इहलौकिक और पारलौकिक भेद से आप्तवचन दो प्रकार के प्रसिद्ध हैं। दर्षन, पुराण, इतिहास आदि इहलौकिक आप्तवचन के उदाहरण हैं, जबकि वेद का मन्त्र भाग, ब्राह्राण आदि पारलौकिक आप्तवचन हैें।
इस प्रकार अनेक विद्वदजनों ने गोरक्ष पद के अर्थ की मीमांसा की है। उन सभी पर गहन दृषिट डाली जावे तो वे अनेक स्थानों पर एक दूसरे से सहमत होते हुए गोरक्षनाथ के मौन इतिहास की गवेषणा करते हुए प्रतीत होते हैं। इस अर्थ और दृषिटकोण से गोरक्ष की संज्ञा किसी देहधारी मानव के लिये असत्य प्रतीत होती है। सत्य क्या है? यह कह पाना आज भी संभव नहींं हैं, किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि, इतिहास जिस विषय मेंं मौन हो उसका उत्तर जनश्रुतियों, किंवदनितयों और दन्तकथाओं रूपी अलिखित साहित्य से ही संभव है। यदि यह माना जावे कि लिखित इतिहास केवल प्रत्यक्ष मेंं घटित घटनाओं का ही संकलन है तो इतिहास की आधुनिक विधा मेंं गोरक्षनाथ का कोर्इ उल्लेख नहींं होना उनके जन्म और काल को प्रत्यक्ष रूप मेंं घटित नहींं होना सिद्ध करता है।
फिर गोरक्षनाथ की वास्तविकता क्या है? क्या गोरक्षनाथ केवल एक विचार है? क्या गोरक्षनाथ शरीर और मनोविज्ञान की एक परम्परा है? क्या गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की कदली के स्त्री राज्य से विजय की कथा का मनुष्य के शारीरिक रचना और आध्यातिमकता से कोर्इ संबन्ध है? नाथपंथ मेंं जिस प्रकार गूढ़ अथोर्ं वाली सांकेतिक पदावलियों का प्रयोग किया जाता है- उसी प्रकार क्या गोरक्षनाथ और नाथपंथ के अन्य सिद्ध आदि केवल एक विचार और आध्यातिमक संकेत हैं?
मूल कथा अनुसार योगी मत्स्येन्द्र नाथ कामरूप देष के कामाख्या प्रदेष मेंं महारानी मैनाकिनी (मंगला) और सौलह सौ अन्य रानियों के साथ योग साधना मेंं तानित्रक कौलाचार प्रयोग कर रहे थे। (याद रहै कि, चोरी से योग विधा को प्राप्त करने के कारण मत्स्येन्द्रनाथ को षिव द्वारा एक समय योग विधा भूल कर पथभ्रष्ट होने और लंका विजय के लियेे समुद्र पर सेतु बनाते समय रानी मैनाकिनी को बारह वर्ष तक योगी मत्स्येन्द्रनाथ का सानिनध्य प्राप्त करने का वरदान दिया गया था)। इस स्त्री राज्य मेंं किसी पुरूष विषेषत: योगी संन्यासी का प्रवेष निषिद्ध था। अपने दिये हुए वरदान की रक्षा के लियेे स्वयं हनुमान इस नगर की रक्षा कर रहे थे। उधर अपने गुरू को इस स्त्री राज्य से मुक्त कराने के लियेे गोरक्षनाथ के अग्रसर होने के दो कारण थे। प्रथमत: वे योग साधना मेंं कौलाचार की वामपंथी विÑति को दूर कर अपने गुरू को योग के मूल पंथ मेंं वापस लाना चाहते थे और द्वितीयत: जालन्धरनाथजी के षिष्य कानिहपा के साथ हुए एक छोटे से वाद-विवाद के कारण गोरक्षनाथ के लियेे यह आवष्यक हो गया था कि वे मत्स्येन्द्रनाथ को उस स्त्री राज्य से मुक्त करावें। उल्लेखनीय है कि, मत्स्येन्द्रनाथ का स्त्री राज्य मेंं कौलाचार साधना और जालन्धरनाथ का गौड बंगाल मेंं मैनावती के पुत्र गोपीचन्द्र को बारह वर्ष पष्चात नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित कराने का वचन एक ही समय की घटनाएं हैं। गोपीचन्द्र को नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित करने से रोकने के लियेे सभासदों और रानियों के कहने पर साधनारत जालन्धरनाथ को गोपीचन्द्र ने एक कुएं मेंं फिकवा कर ऊपर से मिटटी व घोड़े की लीद आदि डलवा दी थी। वाद-विवाद मेंं गोरक्षनाथ ने कानिहपा को उनके गुरू (जालन्धरनाथ) के अपमान का उलाहना दिया तो कानिहपा ने भी मत्स्येन्द्रनाथ के पथभ्रष्ट होने और नाथ सम्प्रदाय की बदनामी का उलाहना दिया था।
विचारणीय प्रष्न यह भी है कि, गोरक्षनाथ जैसे महामानव और महाचरित्र के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ पर स्त्री मोह के इतने अधिक प्रभाव की किंवदंती के पीछे क्या कोर्इ अन्य संकेत भी छिपा हुआ है?
नाथ सम्प्रदाय का आधार पुरुष मत्स्येन्द्रनाथ स्वयं की इतनी उच्च अवस्था को त्यागकर स्त्री मोह में इतना अधिक रत हो जाये, यह आसानी से स्वीकार्य नहींं हो सकता। नवनाथ भकितसागर, नाथलीलामृत और सिद्ध चरित्र नामक कतिपय नाथ ग्रन्थों मेंं इस घटना का उदात्तीकरण करने का प्रयास दिखार्इ देता है। जो ऐसा प्रतीत होता है कि, नाथपंथ के कुछ विद्वानों द्वारा अपने सम्प्रदाय के आदिपुरुष का दोष छिपाने का प्रयास किया गया हो।
बहरहाल, इन सभी और ऐसे अनेक प्रष्नों का उत्तर तो समुद्र मंथन की भांति एक महान शोध के पष्चात भी कदाचित संभव न हो सके किन्तु गोरक्षनाथ द्वारा अपने गुरुदेव मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देष के स्त्री राज्य से मुक्त कराने की प्रमुख आख्यायिका पर महाराष्ट्र की केतकी महेष मोडक ने गोरक्षनाथ मनिदर गोरक्षपुर से वर्ष 1998 मेंं प्रकाषित योगवाणी के अंक चार मेंं योगात्मक रूप से बहुत ही तार्किक प्रकाष डाला है। यधपि उनके द्वारा प्रस्तुत रूपक किसी किसी स्थान पर पदों के प्रतीकात्मक रूप, विषय से सामंजस्य नहींं बैठा पाते तथापि उनकी प्रस्तुति निष्चय ही इस विषय पर वैज्ञानिक दृषिटकोण से विचार करने पर विवष करती है।
इससे पूर्व वर्ष 1992 मेंं नेपाल राजगुरु योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज द्वारा जयपुर के झालाणा ग्राम में वर्तमान थाना मालवीया नगर व केलगिरी आर्इ हास्पीटल के मध्य सिथत प्राचीन षिवमनिदर मेंं कोटि होम यज्ञ सम्पन्न करवाते समय रात्रि मेंं उनकी चरण सेवा के प्रसाद स्वरूप दिये जाने वाले प्रवचनों मेंं एक दिन इसी प्रकार के वचनामृत का रसपान करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। किन्तु उस समय मेरे अन्तर्मन पर उनकी सुविधा, सेवासुश्रूषा और कोटिहोम यज्ञ का निर्विघ्न पूर्ण होने का विचार अधिक हावी होने से उनके द्वारा कहे हुए वृत्तान्त को अपने स्मृति पटल पर नहींं रख सका। किन्तु वर्ष 1994 मेंं अपने विभागीय कार्य से अपने साथी कर्मचारी उपनिरीक्षक भंवर सिंह गौड़ के साथ उदयपुर प्रवास के दौरान ऐसा ही आख्यान उदयपुर के आयस योगी प्रवर मगन मोहननाथजी महाराज ने मेरे द्वारा योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज के वचनामृत के सन्दर्भ मेंं जिज्ञासा करने पर बताया था। वस्तुत: तब से ही मेरे मन मेंं इस कथा मेंं आये पदों का कोर्इ अन्य अर्थ होने की धारणा घर कर गयी थी।
जैसा कि गोरक्ष पद पर विचार करते समय हमने पाया कि गोरक्ष पद मेंं गो के अनेक अथोर्ं मेंं इनिद्रय भी एक है और रक्ष से रक्षा करने वाला अभिहित है। इस आधार पर मानव शरीर मेंं इनिद्रयों की रक्षा करने वाला अन्तर्मन गोरक्ष पद का अर्थ हो सकता है- इस विचार के प्रकाष मेंं अन्य बातों पर विचार किया जावे तो मत्स्येन्द्रनाथ संबन्धी इस आख्यायिका मेंं एक महान आध्यातिमक सत्य का प्रस्फुटन होता प्रतीत होता है।
मानव देह रूपी देष मेंं दक्षिण अर्थात नीचे की ओर जो मुलाधार चक्र नामक स्त्री राज्य है जिसकी रानी पदमिनी (मूलाधार सिथत अधोमुखी अष्टदलीय कमल) नामक सदवासना है। वहां और उसके आस-पास के क्षेत्र मेंं नित्य निरन्तर वासनाओं रूपी सित्रयों का कोहराम मचा रहता है। इस स्त्री राज्य में मारुती के वुभूकार से ही अपत्य की प्रापित होती है और पुरुष संतति वहां जीवित नहींं रहती। इसका अर्थ है कि, मारुती (हनुमान, जिन्हें नाथ सम्प्रदाय के ध्वज पंथ का प्रवर्तक माना जाता है- का एक नाम जो आत्मतत्त्व का वाचक है और वासनाओं से निर्लिप्त व निसंग है) अर्थात श्वास-नि:ष्वास से उत्पन्न होने वाले विचार, कल्पना तथा वासना आदि मेंं से अपने समानधर्मी कामनाओं को इस क्षेत्र मेंं स्थान प्राप्त हो जाता है। जबकि वासनाओं के अतिरिक्त आत्मविषयक उच्च विचारों का वहां प्रवेष नहींं होता। उल्लेखनीय है कि, यहां कामना और वासना स्त्री और आत्म विषयक उच्च विचार पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैंंं। मूल आख्यायिका अनुसार रानी पदमिनी को एक दिन ऊपर आकष से गमन करता हुआ मारुती दिखार्इ देता है ओर उसके मन मेंं मारुती के प्रति काम भावना जागृत होती है।
योग ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि, जब सदवासना ऊध्र्वमुखी हो जाती है तब क्षणमात्र के लियेे ही सही किन्तु उसे आत्मा के सामथ्र्यषाली रूप का दर्षन हो जाता है और यह निष्चय ही इतना आकर्षक होता है कि, किसी भी अच्छी चीज के दिखने पर खुद के लियेे उसकी मांग करने वाली प्रÑति से विवष वासना उसे प्राप्त करने के लियेे उत्कणिठत हो जाती हैं, किन्तु आत्मतत्त्व निष्चल और निर्लेप होने के कारण वासना का उददेष्य पूरा नहींं करता, किन्तु आत्मा का पुत्र जीव चंचल इनिद्रयों वाला होने के कारण वासनाओं से संबंधित हो जाता है। यह जीव ही मत्स्य के समान चंचल इनिद्रयों वाला अर्थात मत्स्येन्द्रनाथ है। वासनाओं से संबंधित हो जाने पर मत्स्येन्द्र नामक जीव की शनै: शनै: अपने मूल आत्मस्वरूप से विस्मृति होती रहती है। इस मत्स्येन्द्र नामक जीव को कभी कभी इनिद्रयों की रक्षा (गो:- इन्द्रीय, रक्ष:- रक्षक अर्थात गोरक्ष) की याद आती है, तो तत्क्षण के लियेे वह उसी प्रकार चौंक उठता है जैसे सुख उपभोग की गहरी नींद से कोर्इ क्षणमात्र के लियेे कोर्इ चेतावनी सुनकर जाग पडे, किन्तु आंख खुलने पर स्वयं को सुरक्षित पाकर पुन: निद्रालीन हो जावे। आनन्दभोग मेंं मस्त हुआ मत्स्येन्द्र इसी प्रकार संयम को अस्वीकार करने लगता है और वासनाओें के जाल मेंं उलझा रहता है।
प्रष्न यह है कि, वासना आसक्त हुए मत्स्येन्द्र नामक जीव को मायाजाल रूपी इस स्त्री राज्य से मुकित कौन दिलवायेगा?
विकल्परहित उत्तर है इनिद्रयनिग्रही विचार अर्थात गोरक्षनाथ। इसीलियेे वासना आसक्त जीव (मत्स्येन्द्र) को इनिद्रयनिग्रही विचार (गोरक्ष) बारम्बार सजग करने का प्रयास करता है। पुन:, चूंकि इनिद्रय संयम का यह विचार आत्मतत्त्व रूपी पुरुष संतति का प्रतिनिधि है जिसका प्रवेष वासना क्षेत्र मेंं निषिद्ध है, अत: यह सूचना प्रकट रूप से नहींं दी जाकर अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है। संकट, व्यवधान, दु:ख, कठिनार्इ और यदा-कदा पुन: प्राप्त होने वाली स्मृति के समय जीव यह सूचना प्राप्त कर लेता है। गोरक्षनाथ स्वयं अपने रूप मेंं मत्स्येन्द्रनाथ के समक्ष उपसिथत नहींं होते। वासना को उत्प्रेरित और पूर्ति मेंं सहायक वातावरण रूपी स्त्री वेष ही गोरक्षनाथ का वह अप्रत्यक्ष रूप है।
अन्त मेंं गोरक्षनाथ द्वारा मृदंग के माध्यम से मत्स्येन्द्रनाथ को जाग मच्छन्दर गोरख आया का अनुभव करवाना इस आख्यायिका का सबसे महत्त्वपूर्ण अंष है। तत्त्ववेत्ताओं मेंं यह निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है कि, देहरूपी मृदंग मेंं ‘सो•हं का अनहद नाद नित्य और अनवरत रूप से ध्वनित होता रहता है। वासना मेंं आसक्त रहने से जीव उसे क्षीण ध्वनि से सुनता रहता है किन्तु यही ध्वनि जब इनिद्रय निग्रह के माध्यम से सुनी जाती है तब इसका भान तीव्रता से होता है। इस अनहद नाद को सुनकर जीव अपने आत्मस्वरूप का अनुभव कर जब वासनाओं के जाल से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करता है तब ही गोरक्ष विजय होती है।
महायोगी गोरक्षनाथ के इस आध्यातिमक रूप की विलक्षण व्याख्या की भांति ही एक ऐतिहासिक गवेषणा भी पुन: एक और विलक्षण तथ्य की बहुत स्पष्ट आकृति प्रस्तुत करती है। हालांकि अगि्रम पंकितयां बहुत विवादास्पद होकर स्वयं लेखक को भी अनेक कारणों से स्वीकार नहीं हैं किन्तु तर्क की कसौटी मान्यताओं के आधार को हिलाती है और एक नयी दिषा देती है और इसी कारण अग्रांकित विचारों को इस ग्रंथ में स्थान दिया गया है। प्रष्न यह नहीं है कि हम इससे सहमत होते हैं या नहीं? उददेष्य महायोगी गोरक्षनाथ के संबंध में इस धरा पर बिखरे हुए कथानकों को एकत्र कर उन्हेेंं ऐसे लोगों के समक्ष प्रस्तुत करना है जो अनुयायी अथवा आलोचक के रूप में उनके बारे में जानना चाहते हैं। अगि्रम पंकितयां वस्तुत: एन्साइक्लोपीडिया में उपलब्ध सामग्री का सरल, सुगम व बोधगम्य अनुवाद आधारित तथ्यों की क्रमबद्ध प्रस्तुती का प्रयास मात्र है जिसमें महान ऐतिहासिक मंगोल नायक चंगेज खान को अपने पश्चातवर्ती जीवन में गोरक्षनाथ होना बताया है। तदनुसार…….
महाभारत के महानायकों में कर्ण एक प्रमुख नाम है। इस महानायक ने अपने मित्र दुर्योधन के लिये उत्तर व उत्तर पषिचमी मध्य ऐषिया और मध्य भारत सहित दक्षिण पूर्वी भारत के अनेक भू-भागों पर विजय प्राप्त कर अपने राज्य में मिलाया था उन राज्यों में कर्ण का नाम हमेषा के लिये अंकित हो गया था। शब्दों की पर्यायता, स्थानीय उच्चारण और मुख सुविधा के कारण कर्ण को कान कहा जाना और कालान्तर में कान का खान के रूप में स्थापित हो जाना बहुत अधिक विवाद का विषय नहीं है। महाभारत में विजय के बाद अजर्ुन ने भी मध्य ऐषिया के अनेक स्थानों को अपने राज्य में मिलाया था किन्तु कर्ण के प्रथम विजेता होने, उसके युद्ध कौषल की लोकप्रियता और उन क्षेत्रों में बहुत समय तक एक शासक अथवा दुर्योधन के राजदूत के रूप में उसकी व्यकितष: उपसिथति और वीरता व दान की युतियुक्त यषगान ने उसकी कीर्ती को जो स्थायित्व दिया वैसा प्रभाव अजर्ुन के संबंध में अंकित नहीं हो सका। इस तथ्य की पुषिट युद्ध के मध्य अजर्ुन का प्रतिद्वन्दी होने पर भी श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण के युद्ध कौषल की प्रषंषा किये जाने से भी होती है। श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण के युद्ध कौषल की प्रषंषा करने पर अजर्ुन के पूछने पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अजर्ुन, मै इस सृषिट का संचालक होकर इस युद्ध में स्वंय तुम्हारे लिये सारथी कर्म कर रहा हूं और तुम्हारा रथ महाबली हनुमान द्वारा रक्षित है। इतना होने पर भी कर्ण के तीरों से न केवल तुम विचलित हो गये हो वरन तुम्हारे रथ को भूमि पर गिरने से बचाने के लिये मुझे माया का प्रयोग करना पडा इसलिये, कर्ण का युद्ध कौषल प्रषंषनीय है। इसे और गहनता से देखा जावे तो कर्ण के युद्धकौषल को मध्य ऐषिया के लोगों ने अपना आदर्ष बना लिया अपने समूह का नाम कान (खान) रख लिया। कर्ण द्वारा विजित अन्य भू-भागों के सन्दर्भ में यही सिथति हूण और मंगोलों के संबंध में पर्याप्त प्रकाष डालती है और यह कहने का युकितयुक्त आधार है कि हूणों के माध्यम से मंगोल भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कर्ण के वंषज होने की संभावना अति प्रबल है।
कर्ण का मंगोल जाति से संबद्ध होने की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद कुछ विलक्षण संयोग विचारकों के समक्ष हठात उपसिथत होते हैं जो आंकलन और गवेषणा के लिये निम्नानुसार बिन्दूवार प्रस्तुत है।
1. उत्तर ऐषिया एवं मध्य ऐषिया में ग का उच्चारण च किया जाता है उदाहरणार्थ गंगा को तिब्बती व चीनी भाषा में चंगा लिखा व बोला जाता है।
2. खान कर्ण का अपभ्रंष है जो कान का पर्यायवाची शब्द होकर स्थानीय उच्चारण एवं मुख सुविधा के सिद्धान्त अनुसार विकसित और किसी महानायक को अपना आदर्ष बनाने की परंपरा के कारण असितत्व में आना अति संभव है।
3. चंगेज खान को गंगेज खान भी कहा जाता है जो गंगा की पावनता और कर्ण के महानायकत्व से प्रेरित होकर एक संयुक्त उपाधी के रूप में धारण की गयी प्रतीत होती है। अंग्रेजी भाषा में गंगा को गंगेज और चंगेज (Changis) को Ghenghis लिखा जाता है। उच्चारण में Ganges और Ghengis की ध्वनी समान ही है।
4. महानायक कर्ण के कानों में जन्म के समय वे दिव्य कुण्डल थे जो नाथयोगियों का विषेष पहचान का चिन्ह है।
5. चंगेज खान ना तो मुसिलम था ना र्इसार्इ वरन महाभारत के नागवंषी समाज की तरह उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी भारत की तानित्रक संस्कृति एनिमिज्मक्षमानिज्म का उपासक था जो बौद्ध और जैन संप्रदाय की श्रमण विचारधारा के समान थी।
6. उसने भारत के किसी भू-भाग पर आक्रमण नहीं किया बलिक अफगानिस्तान से शाह व मुसिलमों को भगाने के लिये आक्रमण किये।
7. यहां तक कि चंगेज खान के प्रपौत्र खूबीलार्इ खान, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था, ने भी भारत पर कभी आक्रमण नहीं किये। यह समझा जाता है कि चंगेज खान के 4-5 पीढियों तक किसी ने भारत पर आक्रमण नहीं किया किन्तु इसके बाद की पीढी जिसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था, ने भारत पर आक्रमण किये।
8. गोरक्षनाथ के समय के बारे में कुच्छ विद्वानों का 8-9वीं और अन्य के अनुसार 11-12वीं शताब्दी है और यही समय चंगेज खान बताया जाता है।
9. नेपाल के गोरखा अपने नाम का उदभव हिन्दू योद्धा सन्त गोरक्षनाथ से होना बताते हैं जो अन्यथा भी सिद्ध है।
10. शब्दों के बनने बिगडने की अपभ्रंष प्रकि्रया और उच्चारण में मुख सुविधा के सिद्धान्त अनुसार गोर खान ही गोरखा और गोर्खा हो गया।
11. तथ्य यह भी है कि 8वीं से 12वीं शताब्दी के मध्यकालीन समय में चंगेज खान जैसे नायक की किसी समाधी का नहीं होना आष्चर्यजनक है जबकि महाराष्ट्र में गणेषपुरी के पास वज्रेष्वरी मनिदर में सिथत समाधी को महायोगी गोरक्षनाथ की समाधी होना बताया जाता है
12. महायोगी गोरक्षनाथ द्वारा मध्य ऐषिया के अफगानिस्तान, बलुचिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, मक्का-मदीना सहित उन स्थानों की यात्रा करना बताया जाता है जहां चंगेज खान द्वारा आक्रमण किये गये।
13. महायोगी गोरक्षनाथ कनफटा नाथयोगियों के पंथ प्रवर्तक थे और बहुत संभव है कि ये कानफटा योगी हिन्दुओं का खान साम्राज्य रहा हो क्योंकि कान और खान की ध्वनी में अन्तर इतना क्षीण है कि विषेष प्रयास से ही अनुभव में आता है।
14. महायोगी गोरक्षनाथ के ग्रंथ सिद्ध सिद्धान्त पद्धति की ही भांति मंगोल नायक चंगेज खान ने यष नामक आचार संहिता लिखी।
उपरोक्त तथ्यों की बहुत अधिक मीमांसा नहीं करते हुए सीधे निष्कर्ष की बात करें तो बहुत संभव है कि मंगोल का महानायक चंगेज खान ही नेपाल में प्रकट होने वाला योगी गोरखनाथ था।
जो भी हो, एक अन्तहीन विषय पर चर्चा अथवा वाद-विवाद भी किसी निष्कर्ष को प्रकट नहींं कर सकता। गोरक्षनाथ केवल एक विचार है अथवा देहधारी मानव?, वर्तमान का सत्य यह है कि, महायोगी गोरक्षनाथ की जयंती मनाने के लियेे उत्कणिठत राजस्थान सहित सम्पूर्ण भारत के नाथयोगी काफी अर्से से उनके प्रादुर्भाव की तिथि जानने के लियेे प्रयासरत थे। हिंगुवा मठ के महन्त योगी प्रवर श्री हजारीनाथजी महाराज (वर्ष 2006 में षिवलीन) की प्रेरणा से योगी मानसिंह तंवर (11 मर्इ 2008 को षिवलीन) ने अपने सहयोगियों सहित सभी संभव प्रयास किये और अन्तत: नेपाल राजगुरू योगी प्रवर श्री नरहरिनाथजी महाराज की Ñपा और सहयोग से नेपाल दरबार लायब्रेरी के एक ग्रन्थ मेंं निम्नांकित पंकितयां मिली।
वैषाखी-षिव-पूर्णिमा-तिथिवरे वारे षिवे म³गले।
लोकानुग्रह-विग्रह: षिवगुरुर्गोरक्षनाथो•भवत।।
ऊपरोक्त पंकितयों से यह सिद्ध होता है कि, महायोगी गोरक्षनाथ का प्रकटीकरण वैषाख मास की पूर्णिमा को हुआ था। यह प्रकटीकरण भूमण्डल और काल के किस खण्ड मेंं हुआ था? इस सम्बन्ध मेंं कोर्इ स्पष्ट व सटीक जानकारी उपलब्ध नहींं हो सकी। यधपि यह विष्वास किया जाता है कि, योगी मत्स्येन्द्रनाथ के नेपाल में अवलोकितेष्वर रूप में अवतरित होने से बारह वर्ष पूर्व गोरक्षनाथ का प्राकटय हुआ था। अब योेगी मत्स्येन्द्रनाथ का समय निर्धारित करें तो नेपाल के एक षिलालेख के अनुसार अवलोकितेष्वर के अवतार का अनुमान कलियुग के बीत चुके समय में से 3600 घटाने पर जितना षेष बचता है वह समय अवलोकितेष्वर के अवतार (अथवा नेपाल आगमन) का है।
नेपाल धरा का षिलालेख
अतीत कलि वर्षेषु, षून्य द्वन्द्व रसागिनषु।
नेपाले जयति श्रीमानार्यावलोकितेष्वर:।।
इस आधार पर गणना करें तो पौराणिक भारतीय काल गणना आंकडों के ऐसे अन्तरिक्ष में ले जाती है, जो वैज्ञानिक व सटीक होते हुए भी अपनी विलक्षण सूक्ष्मता और विषालता के कारण कपोल कलिपत और अविष्वसनीय लगती है।
हम मानवों की विवषता ही है कि, हमने किसी भी विषय की बहुत सूक्ष्म और उसकी विषाल र्इकार्इ का षैक्षणिक ज्ञान तो प्राप्त कर लिया और उसकी कल्पना भी कर ली, किन्तु उसे पूरी तरह जानने और मापने का यन्त्र अब तक तो विकसित नहीं कर सके। हमारे अब तक के विकसित यन्त्र और हमारी इनिद्रयों की षकित केवल इनके मध्य को ही देख व समझ सकती है। फिर भी भारतीय पौराणिक व आध्यातिमक ग्रन्थ काल मापने की इन र्इकार्इयों का जो अनुमान देते हैं, उसके अनुसार बढ़ते क्रम से हम मनुष्यो के समय की सबसे सूक्ष्म र्इकार्इ:-
1. परमाणु,
2. दो परमाणुओं का एक अणु,
3. तीन अणुओं का एक त्रसरेणु,
4. तीन त्रसरेणुओं की एक त्रुटि,
5. सौ त्रुटियों का एक वेध,
6. तीन वेधों का एक लव,
7. तीन लवों का एक निमेष,
8. तीन निमेष का एक क्षण,
9. पांच क्षणों की एक काष्ठा,
10. पन्द्रह काष्ठाओं का एक लघु,
11. पन्द्रह लघुओं की एक नाडि़का (),
12. छ: नाडि़काओं का एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे),
13. आठ प्रहर का एक अहोरात्र (लगभग 24 घण्टे) ,
14. पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष (पखवाडा) ,
15. दो पक्षों का एक मास,
16. छ: मास का एक अयन,
17. दो अयनों का एक वर्ष और इस प्रकार दषाब्द, षताब्दी, सहस्त्राब्द व युग है।
देवताओं के समय का परिमाण मनुष्यों के समय से तीन सौ साठ गुणा अधिक है। इस प्रकार मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र, मनुष्यों के तीस वर्ष देवताओं का एक महीना, मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष देवताओं का एक दिव्य वर्ष और मनुष्यों के चारों युग (अर्थात सतयुग के सत्रह लाख अटठार्इस हजार, त्रेता के बारह लाख छियानवे हजार, द्वापर के आठ लाख चौसठ हजार और कलियुग के चार लाख बत्तीस हजार इस प्रकार कुल तैतालीस लाख बीस हजार वर्ष) बीतने पर देवताओं का एक दिव्य युग व्यतीत होता है। इसी प्रकार ब्रह्राा के समय का परिमाण देवताओं के समय से तीन सौ साठ गुणा अधिक है। साधारण षब्दों में कहें तो ब्रह्राा के एक दिन में चारों युग एक-एकश्हजार बार व्यतीत हो जाते हैं। इसी एक दिन में 14 मनु व 14 इन्द्र बदल जाते हैं और हम मानवों के चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष समाप्त हो जाते हैं। ब्रह्राा के इस दिन को कल्प या सर्ग कहा जाता है और इतने ही समय की रात होती है जिसे प्रलय कहते है। इतने बड़े दिन रात वाले सौ वर्ष धारण करके ब्रह्राा का निधन हो जाता है। गणना में त्रुटि नहीं हुर्इ हो तो ब्रह्राा के ये सौ वर्ष पृथ्वी के 31,10,00,04,00,00,000 वषोर्ं के बराबर होते हैं। षास्त्रज्ञों की मानें तो ब्रह्राा के सौ वषोर्ं अर्थात 31,10,00,04,00,00,00,000 वषोर्ं के बराबर विष्णु का एक दिन होता है और ब्रह्राा की 72 बार मृत्यु हो जाने के पष्चात विष्णु का निधन हो जाता है। इसी प्रकार विष्णु के सौ वर्ष पूर्ण होने पर षिव का एक दिन और विष्णु की 72 बार मृत्यु हो जाने पर षिव का भी निधन हो जाता है।
स्पष्ट है कि, विष्णु के एक दिन को लिखने के लिये हमें 17 अंको की आवष्यकता हुयी है तो मानवों के चतुयर्ुगों और देवताओं के दिव्ययुगों की भांति ब्रह्रायुगों, विष्णुयुुगों और षिवयुगों की फलित संख्या जानने के लिये गणितज्ञों का आश्रय लेना होगा। काल गणना के इस भंवर में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि, समय व्यतीत होने के दृषिटकोण से देवताओं के लिये तो अभी सतयुग ही चल रहा है, और ब्रह्राा की आयु केवल आधी व्यतीत हुर्इ है। सम्भवत: ब्रह्राा के लिये सतयुग अभी षैषव अवस्था में, विष्णु के लिये भ्रूण अवस्था में और षिव के लिये तो सतयुग अभी जन्म की प्रकि्रया में ही है।
उपरोक्त विवेचन में हमने देखा कि समय की सूक्ष्मतम र्इकार्इ परमाणू को मापने में हम अब तक सक्षम नहीं हो सके हैं और इसकी विषालता के सन्दर्भ में हम मानवों का ज्ञान तो बीस से पच्चीस षताबिद तक ही सीमित है और उसमें भी अनेक विसंगतियां है। संवत्सर, युग, मन्वन्तर कल्प, महाकल्प और दिव्ययुग पदों वाले कालखण्डों में से हम साधारण मनुष्यों को केवल संवत्सर व षताबिदयों की घटनाओं का ही ज्ञान है।
आलोचना और अविष्वास की दृषिट से देखें तो कह सकते हैं कि, नाथपंथ के किसी अनुयायी ने काल्पनिक आधार पर इस श्लोक की रचना कर दी होगी। कुछ भी हो जब तक कोर्इ अन्य प्रमाण नहींं मिल जाता वैषाख पूर्णिमा गोरक्षनाथ जयंती के रूप मेंं स्वीकार करनी ही होगी।
मित्रों व सिद्ध नाथयोगियों के परामर्ष पर पाठकों के हितार्थ गोरक्ष चालीसा निम्नानुसार अंकित है।

Post a Comment

0 Comments