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नाथ संप्रदाय के 12 पंथ

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नाथ संप्रदाय के 12 पंथ
नाथ सम्प्रदाय

सम्प्रदाय-‘सम्प्रदाय से तात्पर्य एक ऐसी परम्परागत धार्मिक संस्था से है जिसमेंं धार्मिक षिक्षाएं एक आचार्य से दूसरे आचार्य को षिष्य परम्परा की एक निषिचत प्रक्रिया से हस्तान्तरित होती है। भारतीय दर्षन मेंं इस प्रकार की परम्परा विषेषत: नाथ सम्प्रदाय के सन्दर्भ मेंं काफी पुरानी है, जबकि शेष सम्प्रदायों मेंं इसकी उपसिथति 11वीं शताबिद से पायी जाती है। जिस प्रकार नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख और प्रसिद्ध पद ‘नवनाथाें की सूची के संबन्ध मेंं बहस की सम्भावनाएं विधमान हैं उसी प्रकार इस सम्प्रदाय के मूल 12 पंथों को सूचीबद्ध करना भी एक दुष्कर कार्य है। इन 12 पंथों के ऐतिहासिक विकासक्रम को औपचारिक दृषिटकोण से देखें तो हम पाते हैं कि, इस भू-मण्डल पर षिव की पूजा की एक लम्बी परम्परा रही है, जो भूतकाल मेंं ऋग्वेद के रूद्र मंत्रों, वाजसनेयी संहिता मेंं षिव-रूæ, अथर्ववेद और ब्राह्राण ग्रन्थों तक जाती है। उस समय तक षिव की पूजा के लियेे कोर्इ संस्थागत तरीका होगा यह स्पष्ट नहींं है। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया और षिव तत्त्व के संबद्ध मेंं मानव समाज की जानकारी बढ़ती गयी तो अपने-अपने मतों के अनुसार समूह बनते चले गये। निष्चय ही इन समूहों का नेतृत्व करने वाले आचायोर्ं ने षिव के प्रति अपनी समझ के अनुरूप इन समूहों को एक नाम दिया जिसे सामाजिक विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं ने श्रेणीबद्ध किया और सम्प्रदाय की संज्ञा दी।
इस संबन्ध मेंं सर्वप्रथम ‘सर्व दर्षन संग्रह मेंं माधव ने शैव सम्प्रदाय की आरंमिभक तीन श्रेणियां क्रमष: लकुलीष-पाषुपत, शैव तथा प्रत्यभिज्ञा को सन्दर्भित किया है। पाषुपतलकुलीष विषय पर हमने ‘भारतीय दर्षन का विकास शीर्षक के अन्तर्गत भी चर्चा की है यहां विषय की आवष्यकता के दृषिटकोण से पुन: शेष व संक्षिप्त चर्चा करेंगे। पाषुपत सम्प्रदाय सम्भवत: भगवान षिव के उपासकों की सबसे पहली शाखा है, जिसकी बाद मेंं अनेक उपशाखाएं बनी। ये शाखाएं सर्वाधिक रूप से कम से कम 12वीं शताबिद तक भारत मेंं गुजरात, राजस्थान और विदेषों मेंं जावा तथा काम्बोदिया तक फैलीं। शाखा का यह नाम ‘पषुपति पद से लिया गया है, जो षिव का एक गुणवाचक नाम है जिसका अर्थ ‘पषुओं का स्वामी है और जो बाद मेंं आत्माओं का स्वामी नाम से प्रख्यापित हुआ।
पाषुपत सम्प्रदाय का उल्लेख भारतीय महाकाव्य महाभारत मेंं किया गया है। यह विष्वास किया जाता है, जो अन्यथा भी सत्य ही है कि, आदिनाथ षिव इस सम्प्रदाय के सर्वप्रथम उपदेषक थे। पष्चातवर्ती पौराणिक साहित्य यथा ‘वायु पुराण तथा ‘लिंगपुराण के अनुसार षिव ने यह उदबोधित किया है कि, वे भगवान विष्णु के वासुदेव Ñष्ण रूप अवतार के समय पृथ्वी पर उपसिथत होंगे। उन्होंंने इंगित किया है कि, वे एक मृत शरीर मेंं प्रवेष करेंगे और स्वयं लकुलिन (नकुलिन अथवा लकुलीषलकुलिनलकुला जिसका अर्थ है ‘गदा) के रूप मेंं अवतार लेंगे। 10वींंंंंंंंंंंं और 13वींंंंंंं शताबिद के षिलालेखों से इस उपाख्यान की अभिपुषिट होती है, जैसा कि उनसे लकुलिन नामक आचार्य का सन्दर्भ मिलता है, जो उसके अनुयायियों के विष्वासानुसार षिव का अवतार था।
पाषुपत सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा अपनायी गयी संन्यासी परम्पराओं मेंं दिन मेंं तीन बार शरीर पर राख मलना, ध्यानयोग समाधि तथा दीर्घ स्वर मेंं ओ•म शब्द को अंषों मेंं एक निषिचत क्रम से उच्चारित करना समिलित था। इस सम्प्रदाय के कुछ सदस्यों द्वारा जब रहस्यमय क्रियाओं को अपनाया गया तो समाज मेंं इसकी ख्याति को काफी हानि हुर्इ और यह सम्प्रदाय दो शाखाओंं मेंं बंट गया जिनमेंं एक वाममार्गी कापालिककालामुख था जबकि दूसरा संयत और सामाजिक शैव सम्प्रदाय था जिसे ‘सिद्धान्त शाखा भी कहा गया। अधिक विवेकपूर्ण व तर्कसंगत शैव मत के अनुयायियों (जो आगे चलकर आधुनिक शैव सम्प्रदाय के रूप मेंं विकसित हुआ) और पाषुपत व वाममार्गी शाखाओंं मेंं अन्तर करने के लियेे इन कापालिकों को ‘अतिमार्गी अर्थात पथ से भटका हुआ कहा गया। इस प्रकार कापालिक से तात्पर्य प्राचीन भारतीय हिन्दू शैव संन्यासियों के दो प्रमुख समूहों (कापालिक व कालामुख) मेंं से किसी एक के सदस्य से है, जो 10वीं 11वीं शताबिद तक काफी प्रभावषाली थे और अपनी उपासना के वीभत्स तरीकाें, जिसमेंं मानव बलि शामिल थी, के लियेे कुख्यात थे। यह समुदाय आरंमिभक ‘पाषुपत नामक शैव समुदाय की उपशाखा था। पूजा-उपासना तथा खान-पान मेंं नर कपाल का प्रयोग करने के कारण इन्हें कापालिक कहा जाता था और परम्परागत रूप से ये अपने ललाट पर काला टीका लगाने के कारण ‘कालामुख नाम से भी पुकारे जाते थे। इन दोनों ही प्रकार के संन्यासियों को ‘महाव्रती की संज्ञा भी दी जाती थी क्योंकि ये जीवन पर्यन्त नग्न रहते थे, नरकपाल में ही खाना खाते और मदिरा (तत्समय जो भी नषीला पेय) पीते थे, मृतकों (मानव अथवा समस्त जीव – कौन जानता है?) का मांस खाते थे और शरीर पर राख मलते थे। वे श्मषानों मेंं नितान्त अकेले जाकर योनि (स्त्रीभग) पर साधना किया करते थे और अनेक अन्य विस्मयकारी क्रियाएं करते थे।
कुछ मध्यकालीन भारतीय मनिदरों मेंं कापालिक संन्यासियों को चित्रांकितउत्कीर्णित किया गया है, जो अब तक एक पहेली बने हुए हैंं। विष्वविख्यात तिरुपति (यह षब्द ‘थिरु है जिसक अर्थ है ‘श्री किन्तु बोलचाल में तिरु बोला जाता है) बालाजी मनिदर के गर्भगृह के बाहर मुख्य चौक में एक स्तम्भ पर एक कापालिक व कपालवनिता का काममुæ्रा में उत्कीर्णित चित्र इसका सर्वोच्च उदाहरण कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के नासिक जिले मेंं जगतपुरी नामक स्थान पर एक षिलालेख यह सिद्ध करता है कि, कापालिक इस क्षे़त्र मेंं 7वीं शताबिद मेंं सुस्थापित थे। इनका दूसरा महत्त्वपूर्ण केन्द्र आन्ध्रप्रदेष मेंं श्रीपर्वत (आधुनिक नागार्जुनीकोण्डा) मेंं था और यहां से वे सम्पूर्ण भारत मेंं फैल गये। आठवीं शताबिद के संस्कृत नाटक ‘मालती-माधव की नायिका कापालिक संन्यासियों द्वारा चामुण्डा देवी को दी जा रही उसकी बलि से बचकर भाग निकलती है। यह नाटक भी कापालिकों के 8वीं शताबिद से पूर्व के असितत्त्व को सिद्ध करती है। वर्तमान मेंं अघोरियों को कापालिकों का वंषज कहा जाता है, जिन्हेंं अघोरपंथी भी कहते हैंं।
‘सर्व दर्षन संगृह मेंं ही माधव द्वारा बताया गया ‘षैव समूह तमिल के ‘षैव सिद्धान्त को इंगित करता है। शैव सिद्धान्त का प्रमुख ग्रन्थ ‘षिव सूत्र है, जो वासुगुप्त पर 8वीं 9वीं शताबिद में प्रकट हुआ कहा जाता है। वासुगुप्त ने ‘स्पन्द-कारिका 9वीं शताबिद मेंं लिखा।
‘प्रत्यभिज्ञा काष्मीर के शैव अनुयायियों से संबद्ध है। इस मत का प्रमुख शास्त्र उत्पल द्वारा लिखित ‘प्रत्यभिज्ञा शास्त्र तथा अभिनवगुप्त द्वारा लिखित ‘परमार्थसार, ‘प्रत्यभिज्ञाविमर्षनी तथा ‘तन्त्र आलोक है, जो उत्पल द्वारा 9वीं शताबिद मेंं लिखा गया और क्षेमराज द्वारा 10वी शताबिद मेंं ‘षिव सूत्र विमर्षिनी लिखा गया। तमिल और काष्मीर के शैव मतों मेंं महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि, तमिल का शैव सिद्धान्त जहां यथार्थ और द्वैतवादी है, वहीं काष्मीर का शैव मत संन्यास और आदर्षवादी है। प्रत्यभिज्ञा की अपने नाम के अनुरूप एक अलग ही पहचान है। शैव मत की यह एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक और दार्षनिक संस्था है, जिसके अनुयायी षिव को सर्वोच्च वास्तविकता के रूप मेंं आराधना करते हैंं। तमिल के शैव सिद्धान्त के विपरीत यह शाखा काष्मीर के शैव मत की भांति संन्यास और आदर्षवादी है। इन सभी शाखाओंं मेंं षिव को अखिल ब्रह्रााण्ड का सम्पूर्ण सत्य तथा तात्तिवक व सक्षम कारण माना है। चित्त, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया नामक उसकी पांच शäयिं मानी गयी हैं।
आधुनिक सन्दर्भ मेंं सम्प्रदाय
भारत मेंं आधुनिक हिन्दुत्व के शैव, शाä और वैष्णव नाम से तीन प्रमुख सम्प्रदाय हैं। प्रस्तुत विवरण मेंं हमारा अध्ययन शैव मत पर केनिæत है। शैव मत के अन्तर्गत अनेक शैव शाखाएं हैं जो ऐसे दार्षनिक व धार्मिक संगठन है, जो षिव को सर्वोच्च देवता के रूप मेंं पूजती हैं। शैव मत मेंं अनेक भिन्न संस्थाएं हैं जैसे उच्च दार्षनिकता लियेे हुए शैव सिद्धान्तवादी, सामाजिक रूप से भिन्नता लियेे हुए लिंगायत, दषनामी संन्यासियों के सदृष्य संन्यास सोपान तथा अनेक प्रादेषिक भिन्नता लियेे हुए स्थानीय लोक संस्थाएं। कुछ विद्वानों ने शैव मत का आरम्भ भारत मेंं आयोर्ं से भी पूर्व होने वाली लिंग की पूजा के समय से जोड़ा है। जैसा कि हमने जातियों के विकास क्रम के प्रसंग मेंं इसकी चर्चा की है, यह अभी तक निषिचत नहींं हो सका है तथापि यह स्पष्ट है कि, वैदिक देवता रूæ को षिव से मिश्रित किया गया था जो उपनिषदों के पष्चातवर्ती समय मेंं प्रकट हुआ। श्वेताष्वतरोपनिषद मेंं षिव को सर्वोच्च देवता माना गया, किन्तु यह र्इसा पूर्व व र्इस्वी की दूसरी शताबिद और पाषुपत सम्प्रदाय के आने तक उपासकों के संगठनात्मक रूप मेंं विकसित नहींं हुआ था। आज आधुनिक शैव मत की अनेक शाखाएं हैं, जिनमेंं बहुसंंख्यात्मक संस्था से लेकर आत्यनितक एकात्मवादी विचारधाराएं हैं, किन्तु वे सभी शैव मत के तीन सिद्धान्तों पर सहमत हैं। ये सिद्धान्त क्रमष:
1. ‘पति अर्थात षिव,
2. ‘पषु अर्थात जीव अथवा आत्मा और
3. ‘पाष
अर्थात बन्धन जो आत्मा को भौतिकता मेंं बांधे रखता है। आत्मा के लियेे इस बन्धन से मुä अिैर षिवत्व की प्रापित का उíेष्य निर्धारित किया गया है। इस उíेष्य के निमित्त चार मार्ग बताये गये हैंंं। इनमें
1. ‘चर्या अर्थात उपासना के बाá कार्य,
2. ‘क्रिया अर्थात र्इष्वर की सेवा के लियेे अन्तरंग कार्य,
3. ‘योग अर्थात आत्मा तथा परमात्मा के मिलन की क्रिया और
4. ‘ज्ञान अर्थात तत्त्वज्ञान को शामिल किया गया है।
इस प्रकार हमने देखा कि शैव मत के एक से अनेक होने की कथा अनन्त है और ऐसा प्रतीत होता है कि, सृषिट के विस्तार के उíेष्य से आदिनाथ षिव की ‘एको•हं बहुस्याम अर्थात एक से अनेक होने की इच्छा शä,ि शैव मत के सन्दर्भ मेंं भी चरितार्थ हुयी।
उपराä शब्दांकन के पष्चात हम मूल विषय की चर्चा करते हैंंंं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य परषुराम चतुर्वेदी तथा पाष्चात्य विद्वान जार्ज वेस्टन बि्रग्स ने बहुत ही शोधपूर्वक 12 पंथों को सूचीबद्ध तो किया है किन्तु जोधपुर नरेष मानसिंह ने अपने राज्यकाल (सन 1803 से 1843) मेंं नाथ सम्प्रदाय का सम्पूर्ण भारत मेंं अध्ययन करवाकर 31 पृष्ठों का एक बहुमूल्य दस्तावेज तैयार किया था, जिसमेंं क्षेत्रवार 685 नाथ सम्प्रदाय के आसनों की सूची उन आसनों के पंथ व तत्कालीन पीरों के नाम सहित दी गयी है। उन सभी का पुन:वर्णन करना हमारा उíेष्य नहींं है किन्तु उनमेंं से मूल 12 पंथों की विषुद्ध सूची निकाल पाने का प्रयास अवष्य आषयित है।
अनुश्रुति है कि, योगी गोरक्षनाथ द्वारा नाथ सम्प्रदाय के पुनर्गठन से पूर्व आदिनाथ भगवान शंकर द्वारा प्रवर्तित 12 (कतिपय विद्वानों एवं कुछ स्थानों पर प्रचलित मान्यता अनुसार 18) पंथ असितत्व मेंं थे। योगी गोरक्षनाथ द्वारा भी 12 पंथ चलाये गये। ये सभी ‘षिव दल और ‘राम दल नाम से दो समूहों मेंं बंट गये और ये दोनों ही समूह आपस मेंं बहुत अधिक झगड़ते थे। इन 24 पंथों के दोनों समूहों मेंं से 6-6 पंथों को लेकर योगी गोरक्षनाथ ने वर्तमान 12 पंथों का पुनर्गठन किया। अब बोलचाल मेंं इन्हें साधारणतया पंथ के नाम से तो जाना ही जाता है किन्तु पुरातनपंथी और रूढि़वादी लोग षिव तथा गोरक्ष के नाम से अथवा 18 पंथ के योगी और 12 पंथ के योगी भी कहकर पुकारते हैं। यह एक पहेली ही रही है और मूर्धन्य लेखकों व विद्वानों की कल्पना भी इस संबंध में किसी अनुमान को उद्वेलित नहीं करती, कि षिव और गोरक्ष जैसे महानायकों को अपने मत को इतनी अधिक शाखाओं मेंं विभä करने के क्या कारण थे? योगी गोरक्षनाथ यदि षिव और अपने द्वारा प्रवर्तित पंथों का एकीकरण करने मेंं सक्षम थे तो वर्तमान 12 पंथों का भी एकीकरण क्यों नहींं कर दिया?
इस प्रसंग में संयोगवष राजस्थान विधानसभा चुनाव 2009 की डयूटी के सिलसिले में राजस्थान के पाली मारवाड में सिरोही के समीप (50 किलोमीटर) साण्डेराव में प्रवास के दौरान समय निकालकर सिरोही में अमिबकेष्वर महादेव मनिदर नाम से योगआश्रम में पीठाधीष्वर योगी प्रवर श्री शम्भूनाथजी रावल महाराज के दर्षनार्थ गया। उनसे मेरा पूर्व परिचय जयपुर के विजयमहल आसन बंध की घाटी की सेवा में 20 वषोर्ं तक रहने के बाद श्री महावीरसिंह के कर्णच्छेद संस्कार (दर्षन दीक्षा) के समय 31 दिसम्बर 2005 को हुआ था। कुषलक्षेम और र्विभिन्न चर्चाओं के मध्य योगी श्री शम्भूनाथजी ने बताया कि जब षिव और योगी गोरक्षनाथजी के अनुयायी के मध्य परस्पर झगड़े बहुत अधिक बढ़ गये तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये दोनो गुटों की एक गोष्ठी रखी गयी। सभी आगन्तुकों के आने के बाद षिव तथा गोरक्ष के पहुंचने पर उनके सम्मान में कुछ सिद्धगण खडे हो गये और कुछ अंह भाव से बैठे रहे। तब ही योगी गोरक्षनाथ ने ‘खडे सो सिद्ध, बैठे सो पाषाण उच्चारित किया और यही 12-18 पंथों का समापन और पुनर्गठन था।
अनुमान अनेक संभावनाओं को उद्वेलित करता है। सत्य निकाल पाना आसान नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि, योगी गोरक्षनाथ ने देष, काल और परिसिथति के अनुरूप समन्वयवादी व लोकतानित्रक नीति का आश्रय लिया था। यही कारण है कि, नाथ सम्प्रदाय के मूल 12 पंथों के पुनर्गठन के पष्चात भी नये पंथ (उपपंथ) उनके समय मेंं ही असितत्व मेंं आ गये और कम जानकारी रखने वाले व्यä इिन सभी पंथ-उपपंथों को इतना मिला देते हैंं, कि वास्तविक 12 पंथों की तस्वीर धुंधला गयी है।
दूसरी तरफ 12 की संख्या की बारम्बार आवृŸाि बरबस ध्यान आकर्षित करती है। इस प्रष्न पर विद्वज्जन भी भ्रमित ही हैं और कल्पनाओं का अनितम छोर भी किसी दिशा को इंगित नहींं करता। तथापि यह एक अदभुत और विस्म्यकारी तथ्य है कि, नवनाथों मेंं से किसी के भी द्वारा किसी भी पंथ का प्रवर्तन नहींं किया गया। यदि नवनाथों द्वारा पंथ चलाये जाते तो इन पंथों की संख्या नौ से अधिक नहींं हो सकती थी और इनकी पहचान उä नवनाथों के नामान्त से होती। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि इस सम्प्रदाय मेंं पंथ की अवधारणा पष्चातवर्ती है, आरम्भ मेंं इसकी कोर्इ कल्पना भी नहींं की गयी थी, और अन्य किसी भी संगठन की भांति योगमार्ग के आचायोर्ं ने भी अपने-अपने मत को अलग पहचान देने की महत्त्वाकांक्षा के तहत अनेक पंथों का निर्माण कर लिया। पंथों की इस भीड़ मेंं से योगी गोरक्षनाथ ने नाथमत के वास्तविक उíेष्य को अग्रेषित करने वाले पंथों के अतिरिä अन्य सभी को समाप्त कर दिया।
यह सुनिषिचत है कि, योगी गोरक्षनाथ द्वारा नाथ सम्प्रदाय के पुनर्गठन से पूर्व यह सम्प्रदाय सिद्ध मत, सिद्ध मार्ग, योगमार्ग, योग सम्प्रदाय, अवधूत मत तथा अवधूत सम्प्रदाय आदि नामों से असितत्व मेंं था। कापालिकों ने भी स्वयं को इस सम्प्रदाय से संबद्ध बताया और षिव के विकराल रूप के सन्दर्भ मेंं यह किसी सीमा तक सही भी है तो दूसरी ओर योगी मत्स्येन्æ्रनाथ द्वारा प्रायौगिक तौर पर वाममार्ग को अपनाने और योग मेंं वज्रोली क्रिया के प्रयोग के कारण इसे योगिनी कौल मार्ग भी कहा गया। इस संबन्ध मेंं हमने ‘नाथ महिमा शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है। यदि इन सभी पदों को पंथ की संज्ञा दे दी जावे तो नाथ सम्प्रदाय सैंकड़ों हजार वर्ष पुराने एक ऐसे विषाल वटवृक्ष के रूप मेंं हमारे सम्मुख खड़ा हो जाता है जिसकी असंख्य शाखाएं हैंंं, जो अपने मूल आधार की ओर पहुंचकर जड़ों का रूप ले चुकी हैं, जिसके परिणामस्वरूप ‘नाथ सम्प्रदाय के वास्तविक मूल का असितत्व लोप हो गया है। विविधताओं के इस वन मेंं नाथ सम्प्रदाय के संबन्ध मेंं कोर्इ सहज अनुमान नहींं मिलता। योगी गोरक्षनाथ द्वारा नाथ सम्प्रदाय के पुनर्गठन के पूर्व भी यही सिथति जान पड़ती है कि, आदिनाथ भगवान षिव द्वारा जीवों के कल्याणार्थ जिस शुद्ध व सात्तिवक योगमार्ग का प्रवर्तन किया था, कालान्तर मेंं उस योगमार्ग मेंं अनेक सिद्ध हो गये। इनमेंं से कुछ सिद्धों ने योगाभ्यास से सहज ही प्राप्त होने वाली सिद्धियों का दुरूपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। इन सिद्धों के पृथक-पृथक अनुयायी समूहों के विकसित होने और योगमार्ग के प्रदूषित होने की संकल्पना सहज ही की जा सकती है। योगी गोरक्षनाथ ने भगवान षिव द्वारा प्रवर्तित ‘योगमार्ग के वास्तविक आधारों के अतिरिä अन्य सभी का विच्छेद कर दिया और बाद मेंं केवल उन्हींं आचायोर्ं को अपने नाम से पंथ चलाने का अधिकारी बनाया, जिनका आचरण सम्यक शुचिता व उíेष्य मोक्ष अर्थात जीवन-मृत्यु के बन्धन से मुä हिेकर नाथ सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा व गरिमा से ओत-प्रोत था।
अब हम षिव तथा गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित पंथों के संबन्ध मेंं विचार करते हैंंं, तो अब तक के शोधकर्ताओं द्वारा सीधे ही नाथ सम्प्रदाय के वर्तमान 12 पंथों की एक सूची थमा दी जाती है जिससे न तो षिव द्वारा प्रवर्तित 12 अथवा 18 पंथों का कोर्इ सूचीक्रम मिलता है और न ही गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित 12 पंथों का कोर्इ अनुमान मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि, नवनाथों की सूची की भांति ही 12 पंथों की सूची भी अनुयायियों के अपने प्रमाद, भाष्यकारों की अपनी समझ, उच्चारण की अशुद्धि और मिलते-जुलते पदनामों के कारण ऐसे नाम आ जुडे़ हैं जिन्हें सामान्य तर्क भी स्वीकृत नहीं करता। बीकानेर के प्रो0 बाबूलाल लखेरा ‘प्रहलाद द्वारा वर्ष 2005 में सम्पादित व बीकानेर से प्रकाशित श्रीनाथ स्मृति पुष्प पुसितका में उलिलखित सूची को ही देखें तो प्रो0 लखेरा ने योगी गोरक्षनाथ के 12 प्रमुख शिष्यों के नाम से 12 पंथों का निर्माण होना बताया है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि, यधपि प्रो0 बाबूलाल लखेरा द्वारा बताये गये 12 पंथों की सूची में जोधपुर नरेश मानसिंह और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा बताये गये पंथों में से ही नाम दिये गये हैं, किन्तु माननाथीपंथ के साथ मनोनाथीमाननाथीपंथ, पागलपंथ के साथ पालकपागलपंथ और रावलपंथ के साथ रावणनाथीरावलनाथीपंथ लिखकर इन पंथों के वास्तविक नाम में संशय उत्पन्न कर दिया है। कोर्इ आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में प्रोफेसर साहब के शिष्य या कोर्इ अन्य महानुभाव नाथ सम्प्रदाय के 12 पंथों की सूची में मनोनाथी, पालक और रावणपंथ की एक नयी सूची थमा दें। संशय की पराकाष्ठा ही है कि, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा षिव तथा गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित 6-6 पंथों का उल्लेख किया गया है किन्तु उनके द्वारा निष्कर्ष स्वरूप दी गयी 12 पंथों की सूची से ये सभी नाम मेल नहींं खाते।
षिव द्वारा प्रवर्तित उप शाखाएं गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित उप शाखाएंं
कंंठरनाथ (कच्छ भुज) हेठनाथ
पागलनाथ (पेषावर)े आर्इ पंथ चोलीनाथ
रावल (अफगानिस्तान) कपिलानी चांंदनाथ
पंख बैराग पंथ (रतढोंढा, मारवाड़) रतननाथ
पाव पंथ (जयपुर) बन (मारवाड़)
राम ध्वजपंथ
नाथ सम्प्रदाय के पंथ
(आदि प्रवर्तक भगवान षंकर)
जोधपुर नरेष मानसिंह तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा बताये गये पंंथ व प्रवर्तन स्थान
(जोधपुर नरेष मानसिंह) (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी)
क्र.स. पंथ का नाम संख्या पंथ का नाम मूल प्रवर्तक स्थान
1 सत्य नाथ पंथ 31 सत्यनाथ पंथ सत्यनाथ (ब्रह्राा जी) भुवनेष्वर
2 धर्म नाथपंथ 25 धर्मनाथपंथ धर्मराज युधिषिठर नेपाल
3 रामपंथ 61 रामपंथ भगवान श्री रामचन्द्र गोरखपुर
4 नाटेष्वरी पंथ 43 नाटेष्वरी पंथ लक्ष्मण गोरखटिल्ला
5 बन पंथ 10 कन्हण पंथ गणेष कच्छ
6 कपिलानी पंथ 26 कपिलानी पंथ कपिलमुनि बंगाल
7 मननाथी पंथ 10 मननाथपंथ गोपीचन्द रतढोंडा पुष्कर
8 बैराग पंथ 124 बैराग पंथ भतर्ृहरि रतढोंडा पुष्कर
9 आर्इ पंथ 10 आर्इ पंथ भगवती गोरखकुर्इ बंगाल,
10 पागल पंथ 4 पागल पंथ चौरंगीनाथ पूरण भगत अबोहर पंजाब
11 ध्वज पंथ 3 ध्वज पंथ हनुमानजी अबोहर पंजाब
12 ग्ांगानाथ पंथ 6 ग्ांगानाथपंथ भीष्म पितामह प्ांजाब
13 दास पंथ 3
14 भडंग पंथ 12
15 रावल पंथ 71
16 पाव पंथ 18
कुल 457
दोनों विद्वानों की इस सूची में से बन पंथ, कन्हण पंथ, कपिलानी पंथ, व भडंगपंथ के अनुयायी बहुत कम व केवल स्थान विशेष में ही हैं। नाथ सम्प्रदाय के अधिकांश सामान्य अनुयायी इन पंथों के बारे में अनभिज्ञता ही प्रकट करते हैं। दास पंथ के अनुयायी अर्थ के सन्दर्भ में नाथ (स्वामी, मालिक, राजा) पद का प्रयोग नहीं करते। यहां तक कि दादू, कबीर, जम्भेश्वर (विश्नोर्इ) व तुलसीदास के अनुयायियों ने स्वयं को नाथ सम्प्रदाय से बिल्कुल ही अलग स्थापित कर लिया है।
पाष्चात्य विद्वान डेविड गोर्डोन व्हाइट के अनुसार नाथ संप्रदाय के ये 12 पंथ वारस्तव में किसी सन्यासी परम्परा का विभाजन न होकर मत्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ अथवा उनके षिष्यों के अनुयायियों के ही समूह थेहैं। नाथ संप्रदाय की एक प्रमुख संस्था अमृतनाथ आश्रम के पीठाधीष्वर द्वारा 12 पंथों की निम्नांकित सूचि दी गयी है।
1. सत्य नाथ 2. धर्म नाथ
3. दरिया नाथ 4. आर्इ पंथ
5. वैराग्य के 6. राम के
7. कपिलानी 5. गंगानाथी पंथ
9. माननाथी पंथ 10. रावल के
11. पाव पंथ और 12. पागल पंथ
नाथ संप्रदाय के पंथों के संबंध में समस्त चर्चाओं और विचारण के बाद हम किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके। प्रत्येक व्यकित अपने मत के समर्थन में तथ्यों व तकोर्ं का बोझ लिये मिला और हम यह विचार करने पर विवष हुए कि इस संप्रदाय में पंथों का बनना व विकसित होना अथवा समाप्त हो जाने का संबंध कहीं जाति व्यवस्था की तर्ज पर तो आधारित नहीं। ऐसे में आवष्यक हो जाता है जाति व्यवस्था का अध्ययन।

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