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नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ती

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नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ती और उसके प्रारमिभक आचार्य
नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति किस प्रकार हुर्इ और कितने आचार्य हुए, इस विषय मेंं विद्वदजन भ्रमित हैं क्योंकि वे इस सम्प्रदाय को जैन और बौद्ध सम्प्रदाय का पष्चातवर्ती मानते मानते हैं। जबकि पूर्ववर्ती अध्याय में यह निषिचत हो चुका है कि, यह सम्प्रदाय आदिनाथ भगवान शंकर द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय है और सर्वप्रथम उनके नाम के साथ यह पद प्रयुक्त हुआ है। इस सम्प्रदाय को नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा से प्रसिद्ध होने से पूर्व इसे सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योगी सम्प्रदाय, अवधूत मत, अवधूत सम्प्रदाय, कापालिक आदि नामों से जाना जाता रहा है और आज भी ये नाम प्रचलन मेंं है। इनमेंं से कापालिक संज्ञा के स्थान पर कहीं-कहीं तानित्रक पद का प्रयोग किया जाता हैं, किन्तु इनमेंं सर्वाधिक प्रयोग होने वाले पद नाथ और योगी ही हैं।
हठयोग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ मेंं नाथ सम्प्रदाय के अनेक सिद्ध योगियों के नाम दिये गये हैंं जिनके बारे मेंं विष्वास किया जाता है कि, वे सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड मेंं भ्रमणषील हैं। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है कि, सर्वप्रथम नव नाथों की उत्पत्ति हुयी जिन्हेंं अयोनिज अर्थात जन्म की साधारण प्रकि्रया मैथुन और योनि से उत्पन्न नहींं होने वाला बताया गया है। ‘महार्णव तन्त्र मेंं कहा गया है कि, ये नवनाथ ही नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इस ग्रन्थ मेंं नवनाथों को अलग-अलग दिषाओं का अधिष्ठाता बताया गया है। इन नव नाथों की उत्पत्ति के बारे मेंं ‘योगिसम्प्रदायविष्कृति (योगाश्रम संस्कृत कालेज हरिद्वार के योगी चन्द्रनाथ द्वारा अनुवादित) मेंं बताया गया है कि, नव नारायण ने ही नव नाथ के रूप मेंं अवतार लिया है। कथा के अनुसार सृषिट रचना के पष्चात जीवों को नाष की ओर जाते देखकर षिव ने जीवों को योगमार्ग का उपदेष देने के लियेे नव नारायणों को आदेष दिया। इन नवनारायणों के नाम, उनके द्वारा लियेे गये अवतार और कौन किसका षिष्य बना यह निम्नांकित तालिका से प्रकट होता है।
क्र. सं. नवनारायण के नाम उनके द्वारा लिया गया अवतार उनके गुरु का नाम
1. कविनारायण मत्स्येन्द्रनाथ षिव
2. करभाजनारायण गहनिनाथ षिव
3. अन्तरिक्षनारायण जालन्धरनाथ षिव
4. हरिनारायण भतर्ृहरिनाथ गोरक्षनाथ
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5. आविर्होत्रनारायण नागनाथ गोरक्षनाथ
6. पिप्पलायननारायण चर्पटनाथ मत्स्येन्द्रनाथ
7. चमसनारायण रेवानाथ मत्स्येन्द्रनाथ
8. प्रबुद्धनारायण करणिपानाथ जालन्धरनाथ
9. द्रुमिलनारायण गोपीचन्द्रनाथ जालन्धरनाथ
ऊपरोक्त तालिका के अध्ययन से प्रकट होता है कि, नवनारायणों द्वारा ही नाथ रूप मेंं अवतार लिया गया और इस प्रकार नवनारायण ही नवनाथ हुए। इस तालिका का आगे अर्थ यह हुआ कि षिव तथा गोरक्षनाथ नवनारायण से नवनाथ बनने वालों के गुरु तो हैं, किन्तु वे न तो नवनारायणों मेंं है और न ही नवनाथों मेंं। यदि षिव तथा गोरक्षनाथ को इस सूची मेंं समिमलित किया जावे तो नवनाथ के स्थान पर यह संज्ञा ‘एकादषनाथ होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि आदिनाथ षिव तथा योगी गोरक्षनाथ नवनाथोंं की उस श्रंृखला मेंं शामिल नहींं हैं जो नवनारायण से नवनाथ बने हैं। इसका आगे अर्थ यह हुआ कि षिव और गोरक्षनाथ एक ही हैं और वे अपना मत नहींं बदलते, अपितु आवष्यकता होने पर योग मार्ग के प्रचार हेतु अन्य दिव्यात्माओं को योगमार्ग मेंं दीक्षित कर उनका नेतृत्व करते हैंंं।
नवनाथों के नामों पर विचार करते हैंंं तो ग्रन्थों और विद्वानों को नवनाथों के नाम पर एकमत नहींं पाते। तुलनात्मक व सुगम अध्ययन और सुविधा के दृषिटकोण से हम इसे दो भागों मेंं विभाजित कर लेते हैं। प्रथमत: अनावष्यक सूचि विंस्तार एवं आधुनिक विद्वानों के शोध के पुनरूद्धरण से बचने के लिये नाथ सम्प्रदाय से संबद्ध केवल कुछ प्राचीन और मान्य आधुनिक ग्रन्थों में दिये गये नवनाथों के नाम अगले पृष्ठ पर दी गयी तालिका में शामिल किये गये हैं, जिन्हें अध्ययन और सुविधा के दृषिटकोण से हमने सिद्ध नाथयोगियों को विभिन्न ग्रन्थों में उनकी उपसिथति की आवृती द्वारा उनकी मान्यता को जांचने का प्रयास किया है। परिणाम निष्चय ही बहुत चौंकाने वाले हैं। यह सिथति तो ग्रन्थों की एक लम्बी सूचि में से बहुत विचार विमर्ष के पश्चात चयनित मात्र 9 ग्रन्थों के अध्ययन का परिणाम है। हमें विष्वास था कि महार्णव-तन्त्र, योगिसम्प्रदायाविष्कृति, सुधाकर चनिद्रका और गोरक्ष सिद्धान्त नामक ग्रन्थों में नवनाथों के नाम समान होंगें और आषंका थी, कि सोमन्न रचित ‘नवनाथ चरित्र, कृष्णकुमार बाली रचित ‘भारत में नाथ सम्प्रदाय, डा0 कृष्णलाल रचित ‘हिंदी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, मलिक मौहम्मद जायसी रचित ‘पदमावत और ढूंढीराज रचित ‘चिन्तामणी विजय में नवनाथों के नाम समान नहीं होगें।
अगले पृष्ठ पर अंकित तालिका अविष्वसनीय रूप से आष्चर्य की सीमा तक अनेक विचारों को उद्वेलित करती है। सामथ्र्य होने और अवसर मिलने पर नाथ संप्रदाय से संबद्ध सभी ग्रन्थों में से नवनाथों की एक वृहद तालिका बनाने का विचार प्रस्फुटित होता है। देखना यह है कि, अपने मत के समर्थन और अपने स्वामीगुरू को महिमामणिडत करने के लोभ में किसने किस महापुरूष का नाम नवनाथों में से हटा दिया और किसका नाम जोड दिया?
परंपरागत रूप से नाथयोगियों में निम्नांकित नवनाथ सूचियां प्रचलित हैं जो विभिन्न पंथों, स्थान और अन्य कारणों से पृथक पृथक जान पडती है किन्तु कुछ मूलभूत नाम सभी सूचियों में समान रूप से पाये जाते हैं।
नवनाथ तालिका
क्र. सं. ग्रन्थ का नाम ल्ेखक नवनाथों के नाम
1 महार्णव तंत्र अभिनव गुप्त गोरक्षनाथ1, जालन्धरनाथ1, नागाजर्ुन1, सहस्राजर्ुन1, दत्तात्रेय1, देवदत्त1, जड़भरत1, आदिनाथ1 और मत्स्येन्द्रनाथ1
2 योगी सम्प्रदाय विष्कृति योगी चन्द्रनाथ मत्स्येन्द्रनाथ2, गाहनिनाथ1, जालन्धरनाथ2, भतर्ृहरिनाथ1, नागनाथ2, चर्पटनाथ1, रेवानाथ1, करणिपानाथ1, गोपीचन्द्रनाथ1
3 सुधाकर चनिद्रका सुधाकर एकनाथ1, आदिनाथ2, मत्स्येन्द्रनाथ3, उदयनाथ1, दण्डनाथ1, सत्यनाथ1, सन्तोषनाथ1, कूर्मनाथ1, और जालन्धरनाथ3
4 नवनाथ चरित्र (तेलगू) सोमन्न मीननाथ4, सारंगनाथ (चौरंगीनाथ)1, गोरक्षनाथ2, मेघनाथ1, विरूपक्ष1, नागाजर्ुन3, खणिक1, व्यालि1 और तोरक्कुनाथ1
5 नवनाथ चरित आदिनाथ3, उदयनाथ2, सत्यनाथ2, सन्तोषनाथ2, अचम्भनाथ1, गजकंथडनाथ1, चौरंगीनाथ2, मत्स्येन्द्रनाथ5, और गोरक्षनाथ3
6 भारत मेंं नाथ सम्प्रदाय क्ृष्णकुमार बाली आदिनाथ4, उदयनाथ3, सत्यनाथ3, सन्तोषनाथ3, अचम्भनाथ2, गजकंथडनाथ2, चौरंगीनाथ3, मत्स्येन्द्रनाथ6, और गोरक्षनाथ4
7 हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास डा0 कृष्णलाल हंस आदिनाथ5, मत्स्येन्द्रनाथ7, गोरक्षनाथ5, गैनीनाथ2, चर्पटनाथ2, चौरंगीनाथ4, ज्वालेन्द्रनाथ4, भर्तृहरीनाथ2 और गोपीचन्द्रनाथ2
8 पदमावत म्लिक मौहम्मद जायसी आदिनाथ6, मत्स्येन्द्रनाथ8, गोरक्षनाथ6, गहिनीनाथ3, चर्पटनाथ3, चौरंगीनाथ5, ज्वालेन्द्रनाथ5, भतर्ृहरिनाथ3 और गोपीचन्द्रनाथ3
9 चिन्तामणि विजय ढूंढीराज मत्स्येन्द्रनाथ9, गोरक्षनाथ7, जालन्धरनाथ5, कानिफानाथ2, चर्पटनाथ4, नागनाथ4, भतर्ृहरिनाथ4, रेवणनाथ2 और गहनीनाथ4
10 गोरक्ष सिद्धान्त संगृह आदिनाथ7, मत्स्येन्द्रनाथ10, उदयनाथ4, दण्डनाथ2 सत्यनाथ4, सन्तोषनाथ4, कूर्मनाथ2, भवनाथ1 और गोरक्षनाथ8
11 नवनाथ नाम कविता आदिनाथ8, उदयनाथ5, सत्यनाथ5, सन्तोषनाथ5, अचलअचंभनाथ3, गजबेली कन्थडनाथ3, ज्ञानपारखी चौरंगीनाथ6, मत्स्येन्द्रनाथ11 और गोरक्षनाथ9
12 नवनाथ स्मरण आदिनाथ9, उदयनाथ6, सत्यनाथ6, सन्तोषनाथ6, कन्थडनाथ4, मत्स्येन्द्रनाथ12, चौरंगीनाथ7, अचंभनाथ4, गोरक्षनाथ1ृ0,
13 नवनाथ कथा आदिनाथ,, उदयनाथ7, सत्यनाथ7, सन्तोषनाथ7, अचलनाथ5, कन्थडनाथ5, चौरंगीनाथ8, मत्स्येन्द्रनाथ13, गोरक्षनाथ11
14 नवनाथ स्तुति
आदिनाथ10, उदयनाथ8, सत्यनाथ8, सन्तोषनाथ8, कन्थडीनााथ6, अन्चेतीअचंभनाथ6, चौरंगीनाथ9, मत्स्येन्द्रनाथ14, गोरक्षनाथ12
15 जी.डब्ल्यू. बि्रग्स
आदिनाथ11, शैलनाथ1, सन्तोषनाथ9, अचल अचंभनाथ7, गजबली गजकन्थानाथ7, प्रजानाथ1 अथवा उदयनाथ9, मत्स्येन्द्रनाथ15, गोरक्षनाथ13, चौरंगीनाथ10
16 गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह आदिनाथ12, मत्स्येन्द्रनाथ16, उदयनाथ10, दण्डानाथ, सत्यनाथ9, सन्तोषनाथ10, कूर्मनाथ3, भवनारनाथ, गोरक्षनाथ14
17 स्कन्द पुराण आदिनाथ13, भवनाथ1, सत्यनाथ10, सन्तोषनाथ11, मत्स्येन्द्रनाथ17, कूर्मनाथ4, गोपीनाथ, गोरक्षनाथ15, (अज्ञात)
18 श्री नवनाथ भकितसार कवि श्री मालू (महाराष्ट्र) मत्स्येन्द्रनाथ18, गोरक्षनाथ16, जालन्धरनाथ6, कनिफानाथ3, चर्पटनाथ5, नागेषनाथ5, भरतनाथ, रेवणनाथ3, गहिनीनाथ5
19 भारद्वाज संहिता आदिनाथ14, कण्डलनाथ1, चौरंगीनाथ11, गोरक्षनाथ17, रावलनाथ, अनंगनाथ, जालन्धरनाथ7, भुजंगनाथ6, अरूणाचलनाथ1
ऊपरोक्त तालिका के अध्ययन से प्रकट होता है कि, नवनाथों के नाम पर ग्रन्थ और ग्रन्थकार एकमत नहींं हैं। विषेष्त: छंटनी किये गये इन ग्रन्थों में यदि सभी नामों को नवनाथों में शामिल किया जावे, तो नवनाथों की संख्या 36 से भी अधिक हो जाती है। अपवाद को छोडकर केवल मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का नाम लगभग सभी ग्रन्थों में समान रूप से नवनाथों में शामिल है, जिसमें मत्स्येन्द्र्रनाथ को कहीं पर मीननाथ और कहीं पर मछीन्द्रनाथ नाम से उलिलखित है। इसी प्रकार गोरक्षनाथ को भी कहीं कहीं एकनाथ नाम से सम्बोधित किया गया है। उपलब्ध 19 सूचियों में इन महापुरूषों के नाम की आवृति के आधार पर देखा जावे तो मत्स्येन्द्रनाथ व गोरक्षनाथ का नाम 18, चौरंगीनाथ का नाम (कूर्मनाथ को चौरंगीनाथ मान लेने पर) 15, आदिनाथ का नाम 14, सन्तोषनाथ का नाम 11, उदयनाथ व सत्यनाथ का नाम 10, अचंभनाथ, कन्थडनाथ व जालन्धरनाथ का नाम 7, नागाजर्ुन (नाग, नागेष, भुजंगनाथ को एक माना जाकर) का नाम 6, चर्पटनाथ तथा गाहनीनाथ (गैनी, गहिनी को शामिल कर) का नाम 5, भर्तहरि व गोपीचन्द्रनाथ का नाम 4, रेवानाथ, कनिफानाथ और दण्डनाथ का नाम 3 सूचियों द्वारा समर्थित हैं। शेष नामों की आवृति केवल एक-एक सूचि में है।
यह अपेक्षा की जाती है कि, नाथ सम्प्रदाय के चार प्रमुख आचायोर्ं क्रमष: आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ जालन्धरनाथ और गोरक्षनाथ का नाम तो नवनाथों की सभी सूचियों मेंं अवष्य होगा किन्तु ‘योगी सम्प्रदाया विष्कृति और ‘सुधाकर चनिद्रका ग्रन्थों मेंं गोरक्षनाथ को नवनाथों मेंं समिमलित नहींं किया गया। ‘नवनाथ चरित्र, ‘भारत मेंं नाथ सम्प्रदाय और ‘गोरक्ष सिद्धान्त संगृह मेंं जालन्धरनाथ को नवनाथों मेंं समिमलित नहींं किया गया। ‘योगीसम्प्रदाय विष्कृति, ‘नवनाथ चरित्र तथा ‘चिन्तामणि विजय मेंं आदिनाथ को नवनाथों मेंं समिमलित नहींं किया गया। केवल मत्स्येन्द्रनाथ का नाम सभी ग्रन्थों मेंं समान रूप से नवनाथों मेंं शामिल है, जो कहीं पर मीननाथ और कहीं पर मत्स्येन्द्रनाथ नाम से उलिलखित है। गहनीनाथ व गैनीनाथ और जालन्धर व ज्वालेन्द्रनाथ, नागाजर्ुन व नागनाथ, रेवानाथ व रेवणनाथ, करणिपानाथ व कानिपानाथ को हमने एक ही मान लिया है।
द्वितियत: नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों मेंं प्रचलित मौखिक परम्पराओं पर दृषिटपात करें तो उनमेंं भी नवनाथों के नामों पर मतैक्य नहींं मिलता। मौखिक परम्परा के सन्दर्भ मेंं ‘नवनाथ जाप नाम से एक स्तुति मेंं आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, संतोषनाथ, कंथड़नाथ, अचम्भेनाथ, चौरंगीनाथ, मछन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ के नाम हैं, किन्तु इससे मिलती जुलती संज्ञा वाले नवनाथ रक्षा जाप मंत्र मेंं बालगुन्दार्इ (सम्भवत: गुसार्इं), धूंधलीमल और एक अन्य मौखिक परम्परा मेंं खरमचलनाथ ऐसे नाम हैं जो न तो किसी ग्रन्थ मेंं बताये गये और न ही नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा अनुमोदित है। अलग-अलग स्थानों पर भाषा के उच्चारण और परम्परा के कारण इन नवनाथों के नामों की वर्तनी मेंं किंचित भेद को स्वाभाविक और सामान्य बात मानकर छोड़़ दें तो इतना तो माना जा सकता है कि, उदयनाथ को उदेनाथ, सत्यनाथ को सतनाथ, अचल अचम्भनाथ को आंचोली अंचेपानाथ, मत्स्येन्द्र को मछन्दर और गजबेली गजकन्थड़नाथ को घोडाचोली कन्थड़ीनाथ उच्चरित किया गया है।
नाथ सम्प्रदाय से इतर विद्वदजनों और मौखिक परम्पराओं के अतिरिक्त नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों मेंं भी नवनाथों की सूची का अनुमान मिलता है। इस क्रम मेंं विटठल योगीष्वर मठ कर्णाटक के महन्त राजा पीर योगी चन्द्रनाथ ने ”पीर द्वारकानाथ वाणी तथा ”जोगमाया जाप संगृह नामक ग्रन्थों मेंं नवनाथ मंत्र जाप और नवनाथ भजन लिखा है। मृगस्थली काठमाण्डू के पीठाधीष्वर व नेपाल के राजगुरू विद्वान योगी प्रवर नरहरिनाथ ने ”नाथ नित्यकर्म, ”नवनाथ स्वरूप वर्णन तथा ”नवनाथ चरित्र मेंं नवनाथों के नाम उलिलखित किये हैं जिनकी अवधूत योगी महासभा दलीचा भेक (भेष) बारह पंथ हरिद्वार द्वारा पुषिट की गयी है। इसी प्रकार नवनाथों के नामक्रम मेंं सभी संषयों का विच्छेदन करते हुए नाथ सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ ‘गोरक्ष टिल्ला काषी वाराणसी से प्रकाषित ‘नवनाथ कथा नामक ग्रन्थ मेंं भी नवनाथों के वे ही नाम हैं जो उक्त दोनों महानुभावों द्वारा अपने ग्रन्थों मेंं बताये गये हैंंं। यहां यह उल्लेखनीय है कि, नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा नवनाथों की नामावली उनके द्वारा की जाने वाली नवनाथों की वन्दनास्तुति पर आधारित होने से अधिक विष्वसनीय होने का प्रबल आधार है। नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों मेंं नवनाथ नामावली को साररूप मेंं प्रस्तुत किया जावे तो वन्दना क्रम से जो समान नाम प्रकट होते हैंं वे इस प्रकार है। आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचल अचम्भनाथ, कन्थड़नाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ।
नवनाथों की नामवली की चर्चा अधूरी होगी यदि हम श्रीलंका की नाथ परंपरा में नवनाथों की चर्चा नहीं करें।
श्रीलंका की परंपरा के अनुसार श्रीलंका में अवलोकितेष्वर से संबंद्ध नवनाथों की परंपरा का असितत्व है जो नाथ नाम से जानी जाती है। श्रीलंका में 9वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य लिखी गयी की संस्कृत कृति सरीपुत्र में नाथ को वर्णित किया गया है जिसके आधार पर श्रीलंका के चितेरों ने 15वीं शताब्दी में अवलोकितेष्वर को चित्रित किया है। (हम यहां स्पष्ट कर दें कि सरिपुत्र नामक एक ब्राहमण महात्त्मा बुद्ध का एक प्रमुख षिष्य भी था जिसका नालन्दा में स्तूप है। प्रस्तुत पंकितयां केलानिया युनिवर्सिटी के इन्स्टीटयूट आफ एस्थेटिक स्टडीज के निदेषक डा0 आर.एम. शरत चन्द्रजीवा और इनिदरागांधी नेषनल सेंटर फार दी आर्टस की शोधकर्ता डा0 राधा बनर्जी के शोध पत्रों पर आधारित है)। नवनाथों की अन्य समस्त सूचियों की भांति ही सरिपुत्र में भी नवनाथों की सूचि उनके स्वरूप वर्णन से युक्त है हम यहां केवल उनके नाम का उल्लेख कर रहे हैं। तदनुसार षिवनाथ, ब्रहमनाथ, विष्णुनाथ, गौरीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भद्रनाथ, बुद्धनाथ और गणनाथ हैं।
ज्ञातव्य है कि सरिपुत्र की इस सूचि में केवल आठ ही नाम हैं और गोरक्षनाथ का नाम नहीं है। सूचि में उक्त आठ नामों के तुरन्त बाद अवलोकितेष्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए श्रीलंका में उसकी प्रतिमाओं और चित्रों का विवेचन किया गया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अवलोकितेष्वर को नवनाथों में समिमलित करते हुए उसको बौद्ध और नाथ के मध्य सन्तुलित कर दिया है। अपने शोधपत्र में एक स्थान पर अवलोकितेष्वर के साथ नाथ पद का प्रयोग करते हुए स्पष्ट कहते हैं कि ”श्रीलंका में विभिन्न दूरस्थ स्थानों पर अवलोकितेष्वरनाथ की प्रतिमाएं प्राप्त हुर्इ हैं। अब अवलोकितेष्वर का 84 की संख्यां के साथ विलक्षण संगम देखिये कि अवलोकितेष्वर के भ्रुमध्य से 84 किरणें निकल रही है और प्रत्येक किरण बुद्ध और बोधिसत्वों की इस विषाल संख्या का प्रतिनिधित्व कर रही है। अवलोकितेष्वर की प्रत्येक अंगुली के पौरों में 84000 (चौरासी हजार) तस्वीरें हैं और तस्वीर से निकलने वाली किरण जगत के सभी तत्वों को प्रकाषित कर रही है।
यह सुनिषिचत है कि श्रीलंका में ‘नाथ परंपरा को दक्षिण भारत की ‘अगम नामक शैव परंपरा ने स्थापित किया है। श्रीलंका की परंपरा अनुसार नवनाथ सूचि की पहली और रूचिकर विषेषता यह है कि नवनाथों के संबंध में यह प्राचीनतम अभिलेख है जो समय के साथ आज हम तक पहुंची है। दूसरे, इस सूचि का परीक्षण किये जाने के बाद यह निषिचत रूप से कहा जाता है कि यह भारतीय नाथ परंपरा से संबद्ध है ना कि बौद्ध संप्रदाय के विख्यात एवं प्रतिषिठत समूह जिससे कि अवलोकितेष्वर के रूप में मत्स्येन्द्रनाथ को जोडा जाता है। विस्मय यहां समाप्त नहीं होता वरन श्रीलंका की नाथ परंपरा अनुसार अवलोकितेष्वर को महायोगी गोरक्षनाथ से संबद्ध होना बताया गया है जो कि नेपाल की नाथ परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ को अवलोकितेष्वर बताया जाता है। श्रीलंका की केलानिया यूनिवर्सिटी के इन्स्टीटयूट आफ ऐस्थेटिक स्टडीज के निदेषक डा0 आर.एम. सरथ चन्द्रजीवा के अनुसार अवलोकितेष्वर नाम प्रारंभिक बौद्ध ग्रन्थों यथा प्रथम शताब्दी के उत्तर भारत के प्रसिद्ध दार्षनिक अष्वघोष (80-150 र्इ0) जो बाद में बौद्ध भिक्षु बना के ग्रंथ ललितविस्तार, दिव्य वन्दना और जातक माला आदि में प्रकट नहीं होता। द्वितीय शताब्दी में संस्कृत से चीनी और जापानी तथा आधुनिक काल में विद्वान मेक्स मुलेर द्वारा अनुवादित सुखवतीव्यूह ग्रंथ में बोधिसत्व अवलोकितेष्वर को बुद्ध का पुत्र होना बताया गया है और चौथी से सातवीं शताब्दी के मध्य लिखित गुण-करन्दव्यूह सूत्र, अमितयुध्र्यन सूत्र तथा सधर्म पुण्डरीक सूत्र में अवलोकितेष्वर को अदभुत शकितयों का स्वामी बताया जाकर गुणगान किया गया है। श्रीलंका मेें अवलोकितेष्वर का प्राकटय 8वीं शताब्दी के षिलालेख में होता है जो अवलोकितेष्वर के संबंध में आरंभिक और प्राचीन है। षिलालेख में अवलोकितेष्वर, बुद्ध और मंजूश्री को त्रिमूर्ति कहा गया है।
विचारणीय प्रष्न यह है कि, नवनाथों की इतनी संक्षिप्त सूची के संबन्ध मेंं इतने मत मतान्तर क्यों हैं?
उत्तर इतना सहज नहींं है किन्तु इस ग्रन्थ की प्रस्तावना मेंं उलिलखित प्रथत वाक्यांष (विष्व मेंं मानव समाज अपनी इकाइयों के प्रत्येक स्तर पर अपने दर्षन, संस्कृति साहित्य और इतिहास को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास मेंं लगा रहता है) के प्रकाष मेंं विचार करें तो-
1. सर्वप्रथम यह अवधारणा सत्य ही सिद्ध होती है कि, समय समय पर अलग-अलग स्थानों पर उत्साहित और समर्पित षिष्यों ने अपनी सुविधा अनुसार नवनाथों मेंं से किसी एक के नाम के स्थान पर अपने गुरू का नाम प्रतिस्थापित कर दिया।
2. द्वितीयत: यह एक सुस्थापित तथ्य है कि, इस सम्प्रदाय मेंं यधपि सभी वर्ण एवं वगोर्ं के लोग अनुयायी हुए, किन्तु इनमेंं क्षत्रिय कही जाने वाली जातियों और राजा महाराजाओं का प्रतिषत सर्वाधिक है। यहां यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि अन्य सम्प्रदायों से इतर नाथ सम्प्रदाय ही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जो राज्याश्रय के कारण पल्लवित और पोषित नहींं हुआ वरन राजा महाराजाओं ने इस सम्प्रदाय का आश्रय लिया। जहां कहीं राजा, महाराजा व सम्पन्न व्यकितयों ने नाथ सम्प्रदाय की दीक्षा ली उन्होंने अथवा उनके समीपस्थ सहायकों ने स्थान विषेष की परम्परानुसार नवनाथों के नामों का चित्रण, मुद्रण एवं ग्रन्थ रचनायें करवादी, जो आज नवनाथों के नामों के संबन्ध मेंं मतभिन्नता का कारण बनी हुयी हैं।
3. तीसरा अनुमान यह है कि, नाथ सम्प्रदाय की मान्यता अनुसार स्वयं योगी गोरक्षनाथ ने शास्त्रों के पठन-पाठन को महत्त्वहीन मानते हुए कहा है ”मैंं कहता हूं कि यदि वे मेरा उपदेष मानें तो सभी ग्रन्थों को कुएं मेंं फेंक देें क्योंकि आधुनिक समय मेंं जो स्वयं ही मुä नहींं हैं, वे दूसरों को मोक्ष का उपदेष देने मेंं किस तरह समर्थ हो सकते हैं? ये निपुणता प्रदर्षन, अभिमान, जीविकोपार्जन, व्यसन अथवा किसी भी अभिलाषा की पूर्ति के लियेे षास्त्र रचना करते हैंंं, वह रचनायें पारमार्थिक पुरुषों के समक्ष क्या महत्त्व रखती है? ग्रन्थों की ग्रन्थी को काटने के लिये इस प्रकार का उधोग करने और उपदेष देने वाले योगेष्वर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकले शब्दों को महायोगी गोरक्षनाथ के शब्दों के पासंग में रखकर देखें तो श्रीकृष्ण भी यही तो कह रहे हैं।
यामिमां पुषिपतां वाचं प्रवदन्त्यविपषिचत:। वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।।
कामात्मन: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम। कि्रयाविषेषबहुलां भोगैष्वर्यगतिं प्रति।।
भोगैष्वर्यप्रसक्तानां तयापहतचेतसाम। व्यवसायातिमका बुद्धि: समार्धा न विधीयते।।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवाजर्ुन। निन्द्र्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राहमणस्य विजानत:।।
(अध्याय 2, श्लोक 42-46)
अर्थात अल्पबुद्धि मनुष्य वेदों के उन आलंकरिक वचनों में बहुत आसक्त रहते हैं जिनमें स्वर्ग, उच्चकुल, ऐष्वर्य और भोगों को देने वाले सकामकमोर्ं का विधान है। भोग और ऐष्वर्य की अभिलाषा के कारण ही वे ऐसा कहते है कि इनसे (वेद, ग्रन्थ आदि) श्रेष्ठ कुच्छ भी नहीं। जो मनुष्य विषयभोग और लोकिक ऐष्वर्य में प्रगाढ़ आसकित के कारण इस प्रकार सम्मोहित हो रहे हैं उनके चित्त में मन की एकाग्रता का दृढ़ निष्चय नहीं होता। वेद तो मुख्यत: (केवल) प्रकृति के तीन गुणों का विषय (वर्णन) करने वाले हैं। हे अजर्ुन, तू इन गुणों का उल्लंघन कर के इनसे अतीत हो जा और सम्पूर्ण द्वन्द्वों तथा प्रापित व सरंक्षण के विचार से मुक्त होकर अपने आप में सिथत हो जा।
इसी आधार पर अधिकांष गुरूओं ने भी शास्त्रों को महत्व नहीं दिया और केवल गुरू के सानिनध्य मेंं रहकर मौखिक ज्ञान की षिष्य परम्परा से ही योग साधना पल्लवित होती रही है। स्मृतियों और श्रुतियों के सन्दर्भ मेंं यह कोर्इ नयी बात भी नहींं है। देष, काल और परिसिथतियों के कारण जो परिणाम स्मृतियों और श्रुतियों का हुआ, वही परिणाम नवनाथ नामावली मेंं भी अनपेक्षित नहींं है।
4. एक अन्य अनुमान के अनुसार जैसा कि विदित है कि, नाथ सम्प्रदाय मेंं बारह और अटठारह पंथों मेंं से योगी गोरक्षनाथ द्वारा बारह पंथों का पुनर्गठन किया गया, किन्तु उनके पष्चात इन बारह पंथों के अनेक उपपंथ और उपपंथों की अनेक शाखा-उपषाखाएं विकसित होती रहीं। गुरू को सर्वोच्च सम्मान देने की मानसिकता के कारण अनुयायियों द्वारा अपने पंथ के प्रवर्तक का नाम नवनाथों की नामावली मेंं रखकर उनकी वन्दना करने की प्रबल सम्भावना इस अनुमान को और भी पुष्ट कर देती है। समय व्यतीत होने के साथ-साथ यह एक परम्परा बन गयी और इस प्रकार विभिन्न नवनाथ नामावलियों का असितत्त्व कोर्इ आष्चर्य की बात नहींं है।
सारांष यह है कि, एक अन्तहीन बहस और सभी तर्क वितकोर्ं को विराम देने के लियेे हमेंं एक सर्वमान्य मापदण्ड का आश्रय लेना होगा। नाथ सम्प्रदाय के बाहय और लिखित परम्पराओं तक सीमित रहने वाले इतिहासज्ञों और साहित्यकारों द्वारा किया गया शोध एवं समीक्षा यधपि बहुत महत्त्वपूर्ण है किन्तु उन्हें मान्यता नहींं दिये जाने के कारणों का उल्लेख हम प्रस्तावना मेंं कर चुके हैं। इन महानुभावों के मत को नाथ सम्प्रदाय के बाहर तो कमोबेष मान्यता मिल सकती है किन्तु इतनी कुषलतापूर्वक किये गये प्रदर्षन को भी नाथ सम्प्रदाय के सन्त व अनुयायियों द्वारा स्वीकार नहींं किया गया। अत: आवष्यक है कि, जिस सम्प्रदाय के प्रथम प्रवर्तकों का अनुमान लगाना चाह रहे हैं, उस सम्प्रदाय के मनीषियों से अनुमोदित सर्वत्र व सर्वाधिक प्रचलित मान्यताओं व प्रमाणों को महत्त्व देना होगा। केवल अपने गं्रथ को पूरा करने की ललक मेंं बाहरी और सतही सामग्री को आधार बनाया जायेगा, तो साहित्यकारों, दार्षनिकों व इतिहासकारों द्वारा शोध का प्रपंच चलता रहेगा और वे कभी भी एकमत नहींं हो पायेंगे।
हमने देखा कि ‘योगीसम्प्रदायाविष्कृति और आचार्य द्विवेदीजी द्वारा ‘नाथसम्प्रदाय पुस्तक मेंं दी गयी नवनाथ सूचीयां, नवनाथ स्वरूप मंत्र मेंं उल्लेख किये गये नवनाथों से भिन्न तो हैं ही, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन नवनाथों मेंं से केवल मत्स्येन्द्रनाथ का नाम ही तीनों सूचीयों मेंं समान रूप से है। जहां विचारकों मेंं किसी विषय को लेकर मतभेद हों वहां परम्परा के आधार पर संषय का निवारण तथा मत को स्थापित किया जाना चाहिये, क्योंकि परम्परा किसी कालखण्ड से चले आ रहे किसी व्यवहार की निरन्तरता को प्रमाणित करती है। इस प्रकार हैं ऐसी मान्यता है। इस प्रकार नाथ सम्प्रदाय मेंं प्रचलित नवनाथ ध्यान, वन्दना व स्तुति मंत्रों मेंं चहुंदिष जिन नामों का प्रचलन है और इस सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा जिन नामों का अपने योग ग्रन्थों मेंं वर्णन किया है वे नवनाथ क्रमष: आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचल अचम्भनाथ, कन्थड़नाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ ही हैं। नाथयोगियों द्वारा सन्ध्या उपासना मेंं उच्चरित की जाने वाली नवनाथ स्तुति इस प्रकार है।
ओ•म गुरुजी। ओ•मकारो आदिनाथ ओ•मकार स्वरूप बोलियेे। उदयनाथ माता पार्वती धरती स्वरूप बोलियेे। सत्यनाथ ब्रहमाजी जल स्वरूप बोलियेे। सन्तोषनाथ विष्णुजी खडगखाण्डा तेज स्वरूप बोलियेे। अचल अचम्भनाथ आकाष स्वरूप बोलियेे। गजबलि गजकंथडानाथ गणेषजी गज हसित स्वरूप बोलियेे। ज्ञानपारखी सिद्ध चौरंगीनाथ अठारह हजार वनस्पति स्वरूप बोलियेे। मायारूपी मत्स्येन्द्रनाथ मायारूपी बोलियेे। घट पिण्ड नवनिरन्तरे रक्षा करन्ते शम्भुयति गोरक्षनाथ बाल स्वरूप बोलियेे। इतना नवनाथ स्वरूप मंत्र सम्पूर्ण भया, अनन्त कोटि सिद्धों मेंं नाथजी ने कथ पढ़ सुनाया। नाथजी गुरुजी को आदेष! आदेष!!
हालांकि नवनारायणों को ही नवनाथ बनाये जाने के पश्चात नवनाथ नामावली पर किसी वाद विवाद की संभावना पर पूर्ण विराम लग जाना चाहिये तथापि नाथ सम्प्रदाय की मूलभूत आख्यायिकाओं और अनेक सन्तों से विचार के पष्चात आदिनाथ और जालन्धरनाथ सहित गोरक्षनाथ के नाम के बिना नवनाथ नामावली पूरी हो ही नहींं सकती किन्तु, नवनरायाणों के नाथ बनने के तथ्य की उपसिथति के उपरान्त भी ‘नवनाथ स्वरूप मंत्र मेंं आये नवनाथों के नाम पर एकमत होना युकितयुक्त और विषय की गंभीरता के साथ न्याय नहीं होगा। अत: यह सर्वकालिक रूप से वादविवाद का विषय होकर एक अनुत्तरित प्रष्न रहेगा। हमारी विवषता यह है कि परंपरा द्वारा पोषित इन्हीं नवनाथ स्वरूप मन्त्र में उल्लेखित नवनाथ नामावली पर ही चर्चा करनी होगी।
प्रष्न रह जाता है कि, नवनाथों का स्वरूप वर्णन क्या किसी विषिष्ट रचना की ओर संकेत करता है?
इस प्रष्न पर तार्किक प्रकाष मेंं इन स्वरूपों के योगात्मक रूप पर विचार किया जावे तो सृषिट तथा जीव के निर्माण और इनकी एकात्मता का एक अदभुत दृष्य उपसिथत हो जाता है। यह सुस्थापित है कि, सम्पूर्ण प्रकृति और जगत प्रपंच पंच महाभूत और चार अलंकरणों से मिलकर निर्मित नो तत्त्वों का परिणाम है। (आज केवल पंच महाभूतों को ही जीवधारियों के शरीर के घटक कहा जाता है, जबकि यह सत्य नहींं है, ऐसी लेखक की मान्यता है।) इन नौ तत्वों के युग्म घटक यानी शरीर में इन नवनाथों का क्या तादात्म्य है? यही परीक्षण हम अगली पंकितयों में कर रहे हैं। निसन्देह हम यह स्पष्ट कर दें कि योग का हमें कोर्इ व्यावहारिक अनुभव नहीं है केवल पुस्तकीय ज्ञान और सिद्ध योगियों से चर्चा ही इसका आधार है। अग्रांकित सामग्री केवल एक विचार है जो ना तो वाद-विवाद के लिये है और ना ही हम इस पर अडिग हैं। इस संबंध में यदि कोर्इ समर्थन या खण्डन प्राप्त होता है तो हम उसे गुण-दोष के गुरूत्व के आधार स्वीकार करेंगे।
5. आदिनाथ
नवनाथ स्वरूप पर क्रमपूर्वक विचार किया जावे तो सर्व प्रथम आदिनाथ के ओ•मकार स्वरूप के संबन्ध मेंं प्रकट होता है कि, सभी धर्मग्रन्थों मेंं सृषिट के प्रारम्भ मेंं एक स्पन्दन का होना माना गया है। वेद विज्ञान मेंं शब्द से ही सृषिट का प्रादुर्भाव माना गया है। र्इसार्इयों के धार्मिक ग्रन्थ बाइबल मेंं भी शब्द के बारे मेंं कहा गया है कि, श्प्द जीम इमहपददपदह जीमतमूें जीमूवतकए जीमूवतकूेंूपजी जीम ळवक ंदक जीमूवतकूें जीम ळवकश्ण् शब्द का गुण ध्वनि है और ध्वनि, इस अनन्त आकाष मेंं प्रतिपल एक अनवरत स्पन्दन उत्पन्न करती रहती है। ओ•म ही वह शब्द है जिसकी प्रतिध्वनि अनवरत रूप से अखिल ब्रहमाण्ड मेंं व्याप्त है। सृषिट का जनक, देवों का देव, समस्त शकितयों का स्वामी, समस्त सृषिट जिससे सृजित और समाहित है, समस्त महायोगियों उसी के रूप हैं, जो द्वैत और अद्वैत से परे होने के कारण आदिनाथ नाम दिया गया प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि सदाषिव महेष को आदिनाथ समझने की भूल करने वाले लोगों के लिये यह महत्वपूर्ण है कि भगवान षिव आदिनाथ नहीं है वरन ब्रहमा, विष्णू और महेष भी इस ओंमकार रूप में एकात्म है। ब्रहमा, विष्णु, सदाषिव जानत अविवेका, प्रणव अक्षर के मध्य ये तीनों एका। अविवेकी लोग ब्रहमा, विष्णू और महेष को पृथक समझते हैं जबकि ये तीनों प्रणवाक्षर में एकात्म हैं।
योग में षट चक्रों के वर्णनानुसार जीवधारी के गले में विषुद्ध चक्र का स्थान है जो शुद्ध अन्तरिक्ष के आकाष रूप से संबद्ध है। विषुद्ध चक्र रूद्र ग्रंथी के निम्न केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह सहस्त्रारब्रहमरन्ध्रदषम द्वार के साथ मसितष्क में भ्रुमध्य में सिथत आज्ञा चक्र को स्थापित करता है। यह विषुद्ध चक्र मानव शरीर के आकाष तत्व का आधार है जो राग, द्वेष, भय, लज्जा और मोह को उत्पन्न करने का उत्तरदायी है। योगी (मानव) के लिये विषुद्ध चक्र को पार करना केवल आेंमकार में लय (सूर्य और चन्द्रमा (ह-सूर्च, ठ-चन्द्रमा अर्थात हठ योग) के योग) अर्थात नितान्त शुद्ध सिथति द्वारा ही संभव है। इसीलिये इसे विषुद्ध कहा जाता है। आदिनाथ को ज्योति स्वरूप भी कहा जाता है।
6. उदयनाथ (ऊमा पार्वती)
क्रम सोपान के अन्तर से उदयनाथ द्वितीय स्थान पर हैं और यह नाम षिव की भार्या पार्वती को दिया गया है और सम्पूर्ण पृथ्वी उनका स्वरूप है। यह समझना आवष्यक है कि, यहां पृथ्वी से तात्पर्य केवल हमारे सौरमण्डल के इस पृथ्वी ग्रह से नहींं है वरन अन्तरिक्ष मेंं जितने भी ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, उनका भू-मण्डल षिव भार्या पार्वती का स्वरूप है। पर्वत की पुत्री होने के कारण इन्हें पार्वती और जीव को सर्वप्रथम अपने अपनी निजा शकित से उत्पन्न, पल्लवित और पोषित करने के कारण इन्हें दिव्य शकित, महा शकित, धरती रूपा, माही रूपा, पृथ्वी रूपा, प्राण नाथ, प्रजा नाथ, उदयनाथ, भूमण्डल आदि कहा गया। पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र से संबंद्ध है जो गुदा के मध्य सिथत एक वलय है जो अन्य सभी का आधार है। भौतिक जगत के सृजन से पूर्व आदि शकित ने अदृष्य वलयों का निर्माण किया जो चक्र कहे जाते हैं। यह षिव की निजा शकित (व्यकितगत सामथ्र्य) जो उनसे भिन्न नहीं होकर समस्त सृषिट को प्रकार चलायमान रखती है कि ये महान दिव्य युगल समस्त दृष्टमान एवं बोधगम्य तत्वों का उत्पादन और भरण करता है। जहां षिव समस्त चराचर जगत में आत्मतत्व है तो यह शकित उस चराचर जगत का रूप है। षिव समस्त सृषिट में बीज है तो यह शकित उस बीज को अपने कलेवर में ढांपती और उसका सरंक्षण करती है। जिस प्रकार एक चेहरा दर्पण में प्रतिबिमिबत होकर दो अथवा अनेक बिम्बों में दिखार्इ देकर भी एक ही होता है, उसी प्रकार सृजन के समय माया रचित अनेक कारणों से बाहय अद्वैत बृहम षिव और उनकी निजा शकित द्वीआयामी और बहुआयामी हो जाती है।
सम्पूर्ण सृष्टी की उत्तरदायी होने के कारण यह निजा शकित देवताओं और असुरों की जननी है। शाबिदक अर्थ में मूलाधार (मूलचक्र) से आषय मुख्य आधार या षटचक्रों में प्रथम चक्र है और गणितीय व्याख्या अनुसार मूलाधार चक्र सृषिट का वो शून्य बिन्दू है जहां से सात उच्च लोक और सात पाताल लोक हैं। यहां षिव की निजा शकित के दो रूप है। पहली जव वह षिव से पृथक होकर सृषिट कर्म के लिये अधोगति करती है और दूसरी जब वह सृषिट कर्म से प्रत्याहरण होकर सर्वोच्च सातवें चक्र सहस्त्रार जो कि उसके स्वामी षिव का आसन है, तक ऊपर उठती है जहां, वह पुन: षिव के अद्वेत रूप ओंमकार में समाहित हो जाती है।
उदय का शाबिदक अर्थ उठना या प्रकट होना है अत: उदयनाथ को उदित होने वाले देवता की संज्ञा दी जा सकती है। महायोगी गोरक्षनाथ ने इस दिव्य शकित की सुप्त और जागृत दो सिथतियां बतायी है। सुप्त अवस्था में यह सर्पिणी की भांति मूलाधार चक्र में मेरूदण्ड के आधार में सिथत रहती है। योग की तकनीक से जब इसे जागृत किया जाता है तो यह सुषुम्णा नाडी में प्रवेष कर सहस्त्रार चक्र की ओर ऊपर उठती है जो इसका अनितम लक्ष्य है। मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र की यात्रा में प्रत्येक चक्र का भेदन करती हुर्इ यह अपने स्वामी षिव से संगम करती है। अपनी सुप्त अवस्था में सत, रज और तमस नामक त्रयगुणों की प्रकृति से आवृत और माया के शकित रूप में प्रकट होती है जिससे सभी भाव असितत्व में आते हैं। यही वह शकित है जो इस जगत के असाधारण, भौतिक व परा विज्ञान और असंख्य पदाथोर्ं के असितत्व व वास्तविक बाहरी रूप के लिये उत्तरदायी है। केवल इसी दिव्य कुण्डलिनी शकित को जागृत किया जाकर ही योगाभ्यास में सफलता प्राप्त की जा सकती है और योगी पूर्णतया व सदा सर्वदा के लिये योग में आरूढ हो सकता है। हठयोग प्रदीपिका के तृतीयोपदेष का पहला श्लोक इस कुण्डलिनी के महत्व को स्थापित करता है तदनुसार
स: शैल वन धात्रीणां यथाधारोहि नायक:।
सर्वेषां योग तन्त्राणां तथाधारो हि कुण्डली।
कुण्डलिनी शकित को परा शकित (वस्तुत: यह शब्द पारा शकित है। आध्यातिमक शब्दावली में पारा वीर्य का पर्यायवाची है) भी कहा गया है और इसे जागृत करने के लिये सम्यक ब्रहमचर्य (पारा अर्थात वीर्य का सरंक्षण) का पालन आवष्यक है। मन, वचन और कर्म से मैथुन का सदा-सर्वदा, सर्वत्र व समस्त स्तरों पर त्याग ब्रहमचर्य है। नाथयोगियो के सन्दर्भ में ब्रहमचर्य की कि्रयानिवति केवल सम्यक ब्रहमचर्य की सख्ती और स्वाधिस्ठान चक्र के नियन्त्रण तक सीमित नहीं है, वरन देह के अन्य आठ द्वारो पर भी ब्रहमचर्य का पालन किया जाता है। पूर्ण ब्रहमचर्य के पालन से ही योगी सत्य लोक अर्थात परं ब्रहम के स्थान को प्राप्त करता है।
7. सत्यनाथ (ब्रहमा)
तृतीय स्थान पर सत्यनाथ नाम से ब्रहमा पदस्थापित है, जिनको जलस्वरूप कहा गया है। कहने की आवष्यकता नहींं है कि, सृषिट के समस्त जीवों, चल व अचल पदाथोर्ं के निर्माण मेंं जल एक प्रमुख तत्त्व है। इन्हें प्रजा (सृष्टी पति) पति भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में ब्रहमा की उत्पति विष्णू के नाभी कमल से होना सर्वविदित है। जलतत्व स्वाधिष्ठान चक्र से संबंधित है जो जननेन्द्रीयों के तल में सिथत है और मानव शरीर के स्व का आसन है। ज्ञान गूदडी नामक गं्रथ के अनुसार ब्रहमा भी सृषिट करने की इच्छा के कारण इस जगत प्रपंच में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। आदि पुरूष इच्छा उपजार्इ, इच्छा साखत निरंजन मामही।। इच्छा ब्रहमा, विष्णु, महेषा। इच्छा शारदा, गौरी, गणेषा।। इच्छा से उपजा संसारा। पंच तत्व गुण तीन पसारा।। (ज्ञान गूदडी)
8. सन्तोषनाथ (विष्णु)
चतुर्थ स्थान पर सन्तोषनाथ नामान्तर्गत विष्णु विराजित है, जो तेजसिवता लियेे हुए हैं। आज विज्ञान जगत सहित समस्त संसार यह मान चुका है कि, हमारे शरीर मेंं एक ज्योतिपुंज है जिसे हम योगाभ्यास के माध्यम से अपने ही शरीर मेंं देख सकते हैं। शरीर मेंं इस ज्योतिपुंज की उपसिथति ही जीवन के असितत्त्व को सिद्ध करती है। सूर्य के साथ ज्योतीअगिन तत्व मणिपुर चक्र से संबंद्धित है जो नाभि क्षेत्र में सिथत है। मणिपूर चक्र मानव देह का विषुद्ध केन्द्र बिन्दु है और इस देह रूपी सौरमण्डल के सूर्य के समान है। विष्णु सन्तुषिट का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, इस सृषिट का संचालक, सन्तुलनकर्ता होते हुए भी निर्लिप्त व सन्तुषिट भाव से अपने कर्तव्य का पालन करता है।
शाबिदक अर्थ में देखा जावे तो सन्तोष भौतिक संसाधनों पर स्वामित्व, महत्वाकांक्षाओं पर विराम और हैसीयत आदि पर वर्तमान क्षण की सिथति पर एक तटस्थ भाव को इंगित करता है अर्थात जो है और जैसा है उसकी स्वीकारोक्ती सन्तोष है। इस अर्थ एक वास्तविक योगी महल और कुटिया में तटस्थ भाव से समान रहता है। श्रीमदभगवदगीता में समत्वं योगं उच्यते कहकर समता को ही योग कहा गया है। सन्तोष र्इष्वर का उपहार है जिसके प्राप्त होने पर स्थायी शान्ती प्राप्त हो जाती है। योगीजन इस आन्तरिक शान्ती को प्राप्त होने के कारण बाहरी शान्ती पर निर्भर नहीं रहते। महर्षी पातंजली, कबीर, रहीम आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने सन्तोष प्राप्त हो जाने के बाद किसी भी तृष्णा पूर्ती की आकांक्षा नहीं रहने संबंधी श्लोक, छन्द और कविताएं लिखी हैं जिन्हें पुन: उदधृत करना हमारा उददेष्य नहीं है। किन्तु सन्तोष का तात्पर्य अकर्मण्य हो जाना नहीं है वरन कर्मफल में आसक्ती नहीं रह जाना सन्तोष है। श्रीमदभगवतगीता के छठे अध्याय का पहला और अटठारहवें अध्याय का ग्यारहवां श्लोक इस संबंध में विषय को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं। तदनुसार
अनाश्रित: कर्मफलं कायर्ं कर्म करोति य:।
स सन्यासी च योगी च न निगिर्नचकि्रय:।। और
न ही देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यषेषत:,
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।
9. अचल अचम्भनाथ (विष्णु, शेषनाग अथवा अन्तरिक्ष)
पांचवें स्थान पर अचम्भनाथ नाम से आकाष तत्त्व का उल्लेख है और इसकी प्रकृति अचल बतायी गयी है। गीता के दूसरे अध्याय के चौबीसवें श्लोक-
अच्छेधो∙यमदाáो∙यमक्लेधो∙षोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणूर्चलो∙यं सनातन:।।
के सन्दर्भ मेंं यह तत्त्व स्थायित्व लियेे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का धोतक है। स्थायी होने के कारण अमरत्व के समस्त गुण अर्थात अकाटय, अभेध, अषोष्य, अदाहय आदि इसमेंं समाहित हैं। इन दोनों तत्त्वों पर आगे विचार किया जावे तो ये सभी तत्त्वगुण एक ही परमसत्ता आत्मा की ओर संकेत करते हैंंं जो, सम्पूर्ण सृष्टी में व्याप्त है। पृथ्वी को अपने फन पर सिथर और अचल भाव से धारण करने के कारण शेषनाग को भी अचलनाथ कहा जाता है किन्तु यहां सूर्य और चन्द्र नाडी में लय के द्वारा वायु को सिथरअचमिभत अर्थात अचल कर देने की कि्रया भी संकेतित हो सकती है। जो भी हो, सम्पूर्ण सृष्टी नित्य गतिमान है केवल वायु से बना (बोलचाल में अन्तरिक्ष) आकाष ही सिथर और अचल है। यह एक विलक्षण तथ्य है कि वायु भी सिथर नहीं है और एक निषिचत परिधी के बाद आकाष वायु रहित हो जाता है, संभवत: योग की यही विलक्षणता योगियों का ध्येय है।
10. गजबेली कन्थड नाथ (गणेष)
छठे स्थान पर हाथी को कन्थड़नाथ नाम दिया है। इस सम्बन्ध मेंं कोर्इ बहुत तार्किक तथा सटीक अनुमान उद्वेलित नहींं होता। हाथी को ही क्यों कन्थड़नाथ का स्वरूप अथवा प्रतीक बताया गया? इस विषय पर विचार करते हैंंं तो दो अनुमान प्रकट होते हैं। पहला यह कि आदिनाथ षिव ने हाथी की खाल को अपना कन्थाकन्थड़ी (अधोवस्त्र) बनाया। बेली का अर्थ साथी तथा गज का अर्थ मर्यादा भी होता है। संक्षेप मेंं तात्पर्य यह कि नाथ सम्प्रदाय के मनीषियों द्वारा अपने प्रथम आराध्य षिव द्वारा हाथी के चर्म को यह सम्मान देने के कारण इसे नवनाथों मेंं समिमलित किया गया होगा। इस अनुमान को स्वीकार करने का यह तर्क अत्यन्त कमजोर है। इस आधार पर तो षिव द्वारा अपने शरीर पर धारण की गयी समस्त विचित्रताओं को नाथान्त नाम से इस सूची मेंं लेना होगा। दूसरा अधिक सटीक किन्तु फिर भी विवाद योग्य अनुमान यह है कि, हाथी सृषिट निर्माण मेंं प्रयोग किये गये स्थूल तत्त्वों का प्रतीक है। यधपि स्थूलता के दृषिटकोण से देखा जावे तो किसी अन्य जीव को प्रतीक बताया जा सकता था। किन्तु इस क्रम में गज अथवा हाथी के सर्वाधिक सम्मानित व प्रचलित नाम गणेष पर विचार किया जावे तो बहुत विलक्षण तथ्य प्रकाष में आते हैं।
गणेष अर्थात समूह का नेतृत्व करने वाला जो रिद्धि और सिद्धियों का देने वाला है। गणेष के अन्य नामों में विघ्नेष अर्थात विघ्न उत्पन्न करने वाला और विघ्नेष्वर अर्थात विघ्न समाप्त करने वाला प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ मे विषेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार किसी कार्य के निर्विघ्न संचालन एवं सफल समापन गणेष की अनुकम्पा पर निर्भर करता है। स्पष्ट है कि भौतिक समृद्धि रिद्धि और आध्यातिमक शकित सिद्धि गणेष की कृपा से ही संभव है। योग मार्ग के पथिक को आरंभिक सिथति में ये रिद्धि और सिद्धि उसके मुख्य उददेष्य से भटकाती है। हिन्दू मतानुसार इनिद्रयों का देवता इन्द्र हमेंषा सन्यासियों को उनके पथ से विचलित करने का प्रयास करता रहता है जिससे कि जीवों पर हमेंषा उसका नियन्त्रण बना रहे। वह अपने इन्द्रजाल के माध्यम से योगियों और सन्यासियों को उनकी साधना को सफल नहीं होने देना चाहता। योगियों की साधना की आरंभिक सफलता में ही योगी को समृद्धि, शकित और यष प्राप्त हो जाता है। जो लोग स्वयं को माया (मा¾ नहीं है, या¾ जो अर्थात जो नहीं होकर भी है अथवा जो होकर भी नहीं है वह माया है) से दूर रखने का प्रयास करते हैं तातिवक रूप से उनकी साधना असफल होने का अन्देषा रहता है। यही कारण है कि भौतिक सुखों के त्याग और इनिद्रयों के सुखों पर विजय की अपेक्षा भौतिक सुखों से सन्यास और इनिद्रयों पर नियन्त्रण प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। माया से भागने की अपेक्षा उससे अप्रभावित रहने की षिक्षा पर जोर देते हैं। यह निर्विवादित है कि अवसर मिलने पर त्याग’ पुन: भौतिक सुखों की ओर लालायित होगा और जीती हुर्इ इनिद्रयां पुन: अपने व्यवहार की ओर उन्मुख होगी किन्तु भौतिक सुखों से सन्यास और माया से अप्रभावित व इनिद्रयों पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाने की सिथति में यह आषंका नहीं रहती।
फिर भी इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि अपनी शकितयों पर अति विष्वास योगी को पथभ्रष्ट कर सकती है। जिस प्रकर अगिन के बिना भोजन नहीं पकाया जा सकता उसी प्रकार तप की अगिन के बिना योग को प्राप्त नहीं किया जा सकता। नाथयोगियों की इसी परंपरा से महायोगी गोरक्षनाथ को भी अनेक बार महामाया की अगिन परीक्षा का सामना करना पडा। जो लोग भौतिक सुखों से जुडे रहते हैं वे उनमें लिप्त होकर भोगी और जो त्याग की आड में जीवन की चुनौतियों और दुष्वारियों से भागते हैं वे मुकित का मार्ग प्राप्त नहीं कर सकते। जहां बन्धन है मुकित उसी स्थान से हो सकती है। शान्त और अनुकूल परिसिथतियां एक कच्ची कृपाण की तरह सुरक्षा का सामयिक भ्रम तो उत्पन्न कर सकती है किन्तु वास्तविक अवसर आने पर उसकी कोर्इ उपादेयता सिद्ध नहीं हो सकती। माया की परीक्षा से निकले अपने पथ और अनुषासन के पक्के माया से अप्रभावी रहने वाले योगियों और केवल शान्त व अनुकूल परिसिथतियों में चुनौतियाें से बचकर रहने वाले त्यागी और जितेन्द्र उपमा वाले साधकों के मध्य यही अन्तर सिथति है। योगियों के लिये योगारूढ़ होना गणेष (विघ्नेष-विघ्नेष्वर) की कृपा के बिना संभव नहीं है किन्तु योगी को उस समय सावधान रहने की आवष्यकता है जब योग के मार्ग में रिद्धि एवं सिद्धियां अनायास ही प्राप्त होने लगती है जिससे कि वह माया के अधीन होकर पुन: माया क्रीडा में उलझ कर न रह जावे।
शास्त्रों के अनुसार महादेव द्वारा शीष विच्छेद के बाद गणेष को इन्द्र के ऐरावत हाथी का शीष काटकर लगाया गया जो सामूहिक रूप से इनिद्रयों की अविभक्त शकित व संपतियों का प्रतीक है। गणेष के दो हाथों में पाष (पशुओं के गले में डाला जाने वाला फन्दा) और अंकुष है जिनका सांकेतिक अर्थ है। पाष जीव के त्रिआयामी बन्धन अण्व, कर्म और माया का प्रतिनिधित्व करता है। पाष वह शकित है जिससे स्वामी अपने पशुओं (यहां तात्पर्य जीव से है) को गन्तव्य की ओर ले जाता है और आवष्यकता पडने पर अंकुष का प्रयोग करता है।
11. चौरंगी नाथ (चन्द्रमा)
सातवें स्थान पर वनस्पतियों के जीवनदाता चन्द्रमा को चौरंगीनाथ नाम दिया है। शाबिदक अर्थ के सन्दर्भ में चौरंगीनाथ एक अंगविहीन पुरूष किन्तु पूर्ण ज्ञान का प्रतीक है। नाथ सम्प्रदाय में चन्द्रमा भ्रूमध्य में सिथत आज्ञा चक्र से संबंधित है और तीसरे नेत्र के रूप में भी जाना जाता है। नाथ साहित्य और साधना के सन्दर्भ से देखें तो आज्ञा चक्र (भ्रूमध्य) ही वह स्थान है जहां से निरन्तर अमृत निसृत होकर सूर्य (स्वाधिष्ठान चक्र) में गिर कर नष्ट हो रहा है। इसी अमृत को नष्ट होने से बचाना योगियों और हठयोग (सूर्य और चन्द्रमा की युति) का ध्येय है जो स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र को नियनित्रत किया जाकर संभव है। जब कुण्डलिनी शकित जागृत होकर सुषुम्णा मार्ग में प्रवृत होती है तो शरीर विदेह अवस्था (वह अवस्था जिसमें शरीर के अंग व इनिद्रयां इस प्रकार अन्तर्मुखी होकर निष्चेष्ट हो जाती है जैसे कि उनका असितत्व ही न हो) को प्राप्त होकर विषुद्ध रूप से केवल मसितष्क चेतन रहता है। नवनाथों की सूचियों में कहीं-कहीं चौरंगीनाथ को कूर्मनाथ भी अंकित किया गया है जो श्रीमदभगवदगीता के दूसरे अध्याय के 58वें श्लोक में चर्चित व उपदेषित कूर्म युकित को प्रतिबिमिबत करता है। तदनुसार यदा संहरते चायं कूर्मो∙ंगानीव सर्वष:, इनिद्रयाणीन्द्रयार्थे प्रज्ञा प्रतिषिठता।। अर्थात जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है उसी भांति जो पुरूष अपनी इनिद्रयों को इनिद्रयविषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि सिथर है।
आज्ञा चक्र (चन्द्र स्थान) से निसृत होने वाले अमृत (सोमरस) के प्रसंग में हठयोग प्रदीपिका के तीसरे अध्याय का 45वां और 46वां श्लोक उल्लेखनीय है। तदनुसार नित्यं सोम-कला-पूर्णं शरीरं यस्य योगिन:, तक्ष्हकेणापि दष्टस्य विषं तस्य न सर्पति।। और इन्धनानि यथा वहनिस्तैल-वर्ती छ दीपक: तथा सोम-कला-पूर्णं देही देहं ना मुनछति। अर्थात जिस योगी का शरीर सोमरस (आज्ञाचक्र से निसृत होने वाला अमृत) से पूर्ण है उसका शरीर तक्षक नाग के विष से भी अप्रभावित रहता है। इसी प्रकार जैसे तेल और बाती से पूर्ण दीपक में ज्योती बनी रहती है वैसे ही सोमरस से पूर्ण देह (शरीर) को देही (शरीरी) नहीं त्यागता। ज्ञातव्य है कि आध्यातिमक साहित्य एवं योगियों द्वारा बताये अनुसार जीव के मसितष्क में सहस्त्रदल वाले अधोमुखी कमल सहस्त्रार चक्र में सोम (चन्द्रमा) का स्थान है जिसको पीने वाला नित्य-प्रति की आवष्यकताओं से मुक्त हो जाता है।
12. मत्स्येन्द्रनाथ (मायारूप)
नवनाथों मेंं सबसे अधिक चर्चित नाम मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ है। मत्स्येन्द्रनाथ को माया स्वरूप कहा गया है। संस्कृत मेंं मा का अर्थ नहींं है तथा या का अर्थ है जो। अर्थात जो नहींं है किन्तु फिर भी है और इसके उलटक्रम से जो है किन्तु फिर भी नहींं है, वह माया है। मत्स्येन्द्रनाथ को दादागुरू कहा जाता है और जिस प्रकार परिवार में पितामह को अपने प्रपौत्रों से स्नेह व अनुराग होता है मत्स्येन्द्रनाथ को भी अपने पुत्र (षिष्य) महायोगी गोरक्षनाथ के पुत्रों (षिष्यों) से अनुराग है और परिवार में पितामह का अपने प्रपौत्रों की त्रुटियों को क्षमा करने की स्वाभाविक प्रवृति वाला होने से मत्स्येन्द्रनाथ को कृपालु भी कहा जाता है। निसन्देह सीखने की किसी भी पद्धति और प्रकि्रया में षिक्षार्थी से त्रुटी होना संभव है, नाथ सम्प्रदाय के दादा गुरू मत्स्येन्द्रनाथ कृपापूर्वक उन त्रुटियों को क्षमा कर देते हैं। नाथयोगियों की मान्यता अनुसार जीवन षिव और उसकी निजाषकित का खेल है और सम्पूर्ण चराचर जगत का प्रपंच षिव द्वारा स्थापित विधि के अनुरूप ही होता है। यदि जीव इस सत्य को पहचानने में असफल होता है तो यह उसके स्वयं के विवेक और दृषिट की असमर्थता है और गुरू हमारे ज्ञान चक्षुओं को इस सत्य को पहचानने में समर्थ बनाता है। जीव जब दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृति को छोडकर स्वयं के कर्मों के उत्तरदायित्व को स्वीकार करना प्रारंभ करता है तो जीवन का प्रत्येक क्षण स्वयं षिक्षक बन जाता है। स्वयं षिक्षा की यह प्रकि्रया अनुषासित (अनुभव द्वारा शासित) जीव को जीवन भर त्रुटि रहित षिक्षा देती है जिससे योगी में विष्वास, विनम्रता एवं विषुद्ध व्यवहार के गुणों का स्थायी वास हो जाता है और तब कुण्डलिनी शकित जागृत होकर निरन्तर, निर्बाध व नि:षेष रूप से सुषुम्णा नाडी में गमन करती है।
शरीर मेंं जीव (आत्मा (विष्णु) का पुत्र) मत्स्येन्द्रनाथ का प्रतीक है, जो मछली के समान चंचल इनिद्रयों वाला है। यह जीव शरीर के सम्पूर्ण भागों मेंं विचरण करता है। वासना से संबद्ध होने के कारण अपनी रुचि के विषय से साक्षातकार होने पर वह अपने मूल स्वरूप को भूल जाता है और आनन्दरत रहते हुए संयम को अस्वीकार करने लगता है। वासनाओं के इस जाल मेंं उलझे हुए मत्स्येन्द्रनाथ अर्थात जीव को गोरक्षनाथ अर्थात इनिद्रयनिग्रही विचार से ही मुकित मिलती है। घट अर्थात शरीर और पिण्ड अर्थात शरीरस्थ समस्त तत्त्वों की नित्य और निरन्तर रक्षा करने के कारण गोरक्षनाथ अर्थात इनिद्रयनिग्रही विचार का नाम शम्भुयति कहा जाकर उन्हें बाल स्वरूप कहा गया है।
13. गोरक्षनाथ (बाल रूप)
महायोगी गोरक्षनाथ को षिव का अवतार मानते हैं और षिवस्वरूप मानने के कारण ही षिवगोरक्ष की संज्ञा से उच्चारित करते हैं। यधपि आदिनाथ सृष्टी के प्रथम देव हैं किन्तु गोरक्षनाथ ने योगाभ्यास द्वारा स्वयं को उससे एकात्म कर लिया और इस प्रकार गोरक्षनाथ व आदिनाथ भिन्न नहीं है। गोरक्षनाथ नवनाथों में सर्वोपरि है और पवित्रता में आदिनाथ से अभिन्न होते हुए सृष्टी संचालन के लिये विभिन्न काल एवं भूखण्डों में प्रकट होते हैं। महायोगी गोरक्षनाथ का विषद वर्णन (हमारे ज्ञान की सीमा के अनुसार) तो पृथक से अगले अध्याय में करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत प्रसंग में नवनाथों के स्वरूप को समझने के प्रयत्न में उनके बालरूप से मिलने वाला संकेत हमारा लक्ष्य है। गोरक्षनाथ को एक बालक की भांति निष्कपट, निष्पाप और निर्मल होने से पार्वती का ऐसा पुत्र भी कहा जाता है जो सृष्टी के नियमों से परे अद्वैत है और सभी देव, दानव, नर, किन्नर, यक्ष, गन्धर्व, नाग, वानर, जलन्द, परन्द, चर, अचर, उभयचर आदि जीवों के नैसर्गिक गुण मैथुन से नितान्त नि:षेष होने के कारण जती (यती अर्थात जगत प्रपंच से अनासक्त) है। यती एक बालक की वो अवस्था है जहां उसे अपनी नग्नता का कोर्इ आभास भी नहीं है। महायोगी गोरक्षनाथ अयोनिज (जिसकी उत्पति मैथुन जनित परिणाम न हो) है किन्तु सूर्य और चन्द्रमा की युति का माध्यम होकर भी वह उससे अप्रभावित ही रहता है। षिव ही कि तरह महायोगी गोरक्षनाथ के भी तीन नेत्र हैं। बायां नेत्र चन्द्रमा, दाहीना नेत्र सूर्य और भ्रूमध्य में ज्ञानचक्षु है जिसे षिव नेत्र भी कहा जाता है। प्रथम देव आदिनाथ के सदृष्य होने से महायोगी गोरक्षनाथ को स्वयं ज्योतिस्वरूप (जो स्वयं की ज्योती से प्रकाषित है) भी कहा जाता है। षिव से एकात्म हो चुका योगी जब स्वयं में, सर्वत्र और समस्त तत्वों में षिव का ही प्रतिबिम्ब देखता है तो अद्वैत हो चुके योगी के लिये कुछ भी धृणित और भयकारक नहीं रह जाता क्योंकि उसे सब में स्वयं का ही आभास होने लगता है। श्रीमदभगदगीता में श्रीकृष्ण ने छठे अध्याय के 30वें श्लोक में यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, तस्याहं न प्रणष्यामि स च मे न प्रणष्यति।। कह कर इस अद्वैत दर्षन को समझाया है तो नाथयोगियों द्वारा घट-घट वासी, गोरक्ष अविनाषी, टले काल मिटे चौरासी।। कह कर गोरक्ष (षिव) के सर्वत्र व सभी में व्याप्त होने की अवधारणा की जाती है।
नवनाथों के स्वरूप चिन्तन में आदिनाथ के ओंमकार स्वरूप से लेकर गोरक्षनाथ के बाल स्वरूप तक जीव की उत्पती से उसके पूर्ण विकास पर्यन्त जिन नौ सिथतियों का प्राकटय होता है वह विलक्षण है। सभी जीवों व तत्वों की उत्पती ओंमकार स्वरूप (आदिनाथ) से, प्राकटय धरती स्वरूप (उदयनाथ) से, पोषण जल स्वरूप (ब्रहमा) से, स्थायित्व तेजस्वरूप (सन्तोषनाथ विष्णु) से, जीवन की सार्वभौम एवं सर्वकालिक सत्ता आकाष स्वरूप (अचलनाथ) से, जीवन यापन के समस्त साधन व सामथ्र्य गणेष स्वरूप (गजबेली गज कन्थडनाथ) से, ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ती चौरंगीनाथ से, विभिन्न विषयों में प्रयोग मायारूपी (मत्स्येन्द्रनाथ) से और उक्त सभी कि्रयाकलापों सहित सत्य तत्व का मार्ग प्रषस्त करने वाला इन्द्रीयनिग्रही विवेक बालस्वरूप (षम्भूयती गोरक्षनाथ) से प्राप्त होता है।
पूर्ववर्ती पंकितयों में हमने जीव की देह के बाहरी विकास एवं जगत प्रपंच के दृषिटकोण से विचार करने का प्रयास किया। यदि देह के भीतर ही इन नवनाथों की सिथति का दर्षन करें तो भी इसी प्रकार की विलक्षणता का अनुभव होता है। योगवेत्ताओं के अनुसार जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो शरीस्थ मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विषुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र, को भेदती हुर्इ सहस्त्रार चक्र में पहुंचती है। जीव के शरीर में ये सात चक्र कहीं दादा गुरू मत्स्येन्द्रनाथ और महायोगी गोरक्षनाथ से इतर शेष सात नाथों के स्थान तो नहीं? यदि यत पिण्डे तत ब्रहमाण्डे की अवधारणा के दृषिटकोण से देखा जावेे तो मानव शरीर में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विषुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रार चक्र क्रमष: उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचलनाथ, गजबेली कन्थडनाथ, चौरंगीनाथ और आदिनाथ के स्थान हैं और वृहद रूप में जिस प्रकार सृषिट को संचालित करते हैं उसी प्रकार सूक्ष्म रूप में जीव के नियन्ता हैं। मत्स्येन्द्रनाथ शरीस्थ सिथतियों, सिथतियों के प्रति हमारी पृवृति और व्यवहार तथा गोरक्षनाथ उक्त सभी द्वारा संचालित की जाने वाली इनिद्रयों को नियन्त्रक होकर भी उन इनिद्रयों के कि्रयाकलापों से निर्लिप्त विवेक शक्ती है। श्रीमदभगवतगीता के पांचवें अध्याय के सातवें श्लोक अनुसार योग की शाष्वत सिथति को प्राप्त योगी जिसका अन्त:करण पूर्णतया शुद्ध हो गया है, जिसकी दृषिट समस्त तत्वों में अपनी छवि देखती है वह प्रकटत: कि्रया करते हुए भी अपने कमोर्ं से नहीं बन्धता। योगयुक्तो विषुद्धात्मा विजितात्मा जितेनिद्रय:, सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।
नवनाथों के स्वरूप के संबंध में विचार और चिन्तन करते हुए अनेक अनुमान उद्वेलित हुए हैं। शरीर में किसी भौतिक अंग की भांति नहीं होने पर भी चक्रों के सिथतिक्रम और उनकी ऊर्जा से नवनाथों को संबद्ध करते हुए एक ऐसा वैज्ञानिक सत्य प्रकट होता है जिसके लिये शोध किया जाकर एक पृथक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। फिलहाल महायोगी गोरक्षनाथ के संबंध में गोरक्षनाथ नामक अगले अध्याय में विस्तृत चर्चा करेंगें।
नवनाथों के साथ चौरासी की संख्या ही अज्ञात समय से न केवल नाथ और बौद्ध पंरपरा वरन सभी धार्मिक समूहों में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। विभिन्न स्त्रोतों में चौरासी सिद्ध, चौरासी लाख योनियां, चौरासी लाख आसन जिनमें से वे चौरासी आसन प्रमुख हैं जो प्रत्येक एक लाख आसन का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इस प्रकार चौरासी की संख्या का असितत्व अकस्मात अथवा संयोग से नहीं होकर अवष्य ही किसी अदृष्य तर्क किसी अज्ञात सिद्धान्त अथवा विधि से संबद्ध होना चाहिये। कल्पना किसी अनुमान को उद्वेलित नहीं करती।
नाथयोगियों की षिक्षाओं को गहनता से समझने का प्रयास करने वाले को शीघ्र ही नाथयोगियों द्वारा पूजित नवनाथ चौरासी सिद्धों से परिचित होना आवष्यक हो जाता है। सभी ग्रन्थों में इन नाथयोगियों की संख्या अनुषासनिक रूप से नौ एवं चौरासी है किन्तु जब यह जानने का प्रयास किया जाता है कि यह संख्या नौ और चौरासी ही क्यों है, ये नवनाथ और चौरासी सिद्ध कौन हैं और उनका जीवन परिचय क्या है? तो कोर्इ सन्तोषप्रद उत्तर प्राप्त नहीं होता वरन अनेक विरोधाभाषी विचार और कहानियां प्रकट होती है जिनसे इस बारे में कोर्इ सटीक अनुमान लगाया जा सकना या निष्कर्ष निकाल पाना संभव नहीं होता। यह पहेली आज तक अनसुलझी होकर शोधकर्ताओं के लिये इस सम्प्रदाय को समझ पाना एक मुषिकल कार्य बना हुआ है। फिर भी हमें याद रखना होगा कि विष्व में अनेक ऐसे रहस्य हैं जिनका कोर्इ तार्किक, सहज और बोधगम्य स्पष्टीकरण नहीं है किन्तु वे निरर्थक नहीं है। कहीं कोर्इ कडी टूट गयी है और हो सकता है इन रहस्यों के वे अदृष्य और आन्तरिक तार्किक सिद्धान्त हम आधुनिक मानवों की समझ में नहीं आये हों जो सतही रूप से दृष्यमान नहीं है। षिव द्वारा पार्वती को अमरकथा बताये जाने के सन्दर्भ में नाथयोगियों की षिक्षा व कि्रयाकलापों की प्रकृति गहन एवं अत्यधिक गोपनीय है और केवल पूर्णरूपेण दीक्षित योगी द्वारा अपनी अन्तदर्ृष्टी एवं अनुभव से ही इन्हें जाना जा सकता है। भौतिक जगत के सदृष्य ही आध्यातिमक जगत के भी सर्वकालिक नियम हैं जो किसी पंथ या धर्म पर आश्रित नहीं है। चूंकि धर्म की अवधारणा मानव द्वारा सृजित है जो सामयिक तौर पर सांस्कृतिक परंपराओं पर आधारित है जबकि आध्यातिमक नियम सनातन है। नौ और चौरासी की संख्या के गणितीय स्पष्टीकरण पर विचार करें तो 12 राषियों और 7 ग्रहों का गुणनफल 84 आता है। (हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार राहू और केतु (छाया ग्रहों) को भी मुख्य ग्रहों में शामिल किया गया है तदनुसार 9 ग्रहों और 12 राषियों की अवधारणा से यह संख्या 108 होती है)। भारतीय सन्दर्भ के अतिरिक्त 9 और 84 की संख्याओं को विष्व की प्राचीनतम सभ्यता मिश्र, बार्इबल की कथाओं और नाथ संप्रदाय के सहमार्गी बौद्ध मत के साथ अध्ययन करें तो बहुत अधिक विस्मयकारी तथ्य प्रकट होते हैं। श्
यह आष्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि ये 9 एवं 84 की दो रहस्यमयी संख्याएं मिश्र की धरती से आयी हैं जहां ये दोनों संख्याएं मिश्र के पिरामिडों के रूप में एक साथ प्रयोग की गयी हैं। मिश्र के पिरामिडों को उन बीजभूत टीलों का प्रतिनिधी माना जाता है जिनसे पृथ्वी की उत्पतित हुर्इ है। पिरामिडों के निर्माण की संख्या के योग का परीक्षण करते हैं तो 84 की सख्यां वास्तव में चमत्कृत करती है। इसी प्रकार सृष्टी रचना संबंधी विभिन्न ग्रन्थों में भी मिश्र के पिरामिडों की त्रिआयामी संख्या 1-3-5-7 प्रकट होती है। सृष्टी रचना संबंधी मिश्र की प्राचीनतम किंवदन्ती अनुसार जब प्रथम देवता (आदिनाथ) प्रकट हुआ तो उसे सिथत होने के लिये कोर्इ स्थान नहीं था। उसके अवस्थान के लिये ये टीला (ठमद.इमद) प्रकट हुआ जो कि प्राय: सूर्य उपासना के निमित्त होने का भ्रम उत्पन्न करता है। सृष्टी निर्माण संबंधी मिश्र के ग्रंथों के अनुसार सृषिट का आविर्भाव सृषिट के देवता नवनाथों के रूप में हुआ जिनका एक अघिष्ठाता देव आदिनाथ है। अब स्थान के अनुसार उन नौ देवताओं और उस अधिष्ठार्इ देव के नाम में अन्तर हो सकता है। यह विवाद का विषय भी नहीं है। नाथयोगियों द्वारा उन नौ देवों को ही नवनाथ कहा जाता है जो प्रथम देव (आदिनाथ) को मध्य में स्थापित करने के लिये आठ दिषाओं में प्रकट हुए। इससे पूर्व कुच्छ भी नहीं था किन्तु इन नौ देवों (क्योंकि मिश्र के सन्दर्भ में चर्चा की जा रही है अत: यहां नवनाथ पद के स्थान पर नौ देव पद का प्रयोग कर रहे हैं) के प्रकट होते ही समस्त सृषिट अपनी पूर्ण पेचीदगियों सहित प्रकट हो गया। यह धारणा नाथयोगियों की षिक्षाओं व मान्यताओं के इतने निकट है कि दोनों के मध्य कोर्इ अन्तर ही नहीं रह जाता। यदि सूर्य और चन्द्र गतिमान हैं तो सृषिट अवष्यंभावी है और यदि निर्माण को विराम देना है तो इन दोनों को आराम दिये जाने की आवष्यकता है।
इस स्थान पर तीन चित्र दिये गये हैं किन्तु वे वेब पर प्रकट नहीं हो रहे।
पिरामिडों के सर्वोच्च षिखर (ठमद.इमद) की अवधारणा और षिवलिंग में समानता दृष्टव्य और विचारणीय है। भारत में ऐसे अनेक षिवलिंग हैं जिनमें मुख्य लिंगाकृति अष्टकोणीय आकृति से धिरी हुर्इ है उदाहरणार्थ वाराणसी (बनारस) का भैरों मनिदर। पाष्चात्य विद्वान जी.डब्ल्यू. बि्रग्स ने अपनी पुस्तक गोरक्षनाथ एण्ड कनफटा योगीज में इस षिवलिंग का सटीक वर्णन किया है और मुझ लेखक द्वारा अपनी माता की इच्छानुसार अपने पिता षिवलीन योगी श्रीमानसिंह तंवर के पिण्डदान हेेतु की गयी गयातीर्थ की यात्रा से लौटते समय इस षिवलिंग के दर्षन करने का अवसर मिला। जी.डब्ल्यू. बि्रग्स के शब्दों मेंरू ष्प्ज बवदेपेजे व ंि ीनहमए बवचचमत.बवअमतमकेजवदम सपदहंए चंपदजमक तमकण् प्ज पे ंइवनज मपहीज मिमज ीपही ंदक ंइवनज जूव ंदक वदम ींस मिमज पद कपंउमजमतए पेेपजनंजमक वद ं संतहमए ीपहीऐजवदम चसंजवितउ ंदक पेेनततवनदकमक इल ंूंससण् म्पहीजेउंसस चसंजवितउेेनततवनदक जीम सपदहंण्ष् ठीक यही अवधारणा विभिन्न आध्यातिमक एवं धार्मिक यन्त्रों में प्रतिबिमिबत होती है। नाथयोगियों की एक वाणी में भी कहा गया है कि अष्ट कमल में तेरे खेल अवधू वरना सब झूठा रे।
इसी प्रकार र्इसार्इयों के पवित्र ग्रंथ में चौरासी की संख्या का सन्दर्भ देखें तो बार्इबल के मैथ्यू 10:5-15 मार्क 6:7-13 में उल्लेख है कि जीसस ने अपने 12 षिष्यों का बुलाया और उन्हें दुष्ट आत्माओं को निकाल बाहर करने व बीमारियों को ठीक करने की शकित दी और र्इष्वर की राजधानी में धर्मोपदेष के लिये भेजा। उसके बाद 72 अन्य षिष्यों को दो-दो के जोडे में उन स्थानों पर भेजा जहां उसे स्वयं को जाना था। सभी षिष्यों ने लौटकर खुषीपूर्वक कहा कि हे पिता, दुष्ट आत्माओं ने भी आपके नाम का आश्रय लिया है। तब जीसस ने कहा कि उसने शैतान को स्वर्ग से बिजली की तरह गिरते हुए देखा है। उसने आगे कहा कि मैने तुम्हे सांप और बिच्छुओं को कुचल डालने और दुष्मन की समस्त ताकत पर अधिकार करने का अधिकार दिया है, तुम्हें कोर्इ हानि नहीं होगी। इस बात से प्रसन्न मत हो कि बुरी आत्माओं ने समर्पण किया है किन्तु इस बात से प्रसन्न होना कि तुम्हारा नाम स्वर्ग में लिखा गया है। उल्लेखनीय यह है कि जीसस द्वारा भेजे गये षिष्यों की संख्या 12+72 ¾ 84 होती हैं।
यह संयोग भी हो सकता है और वास्तविकता भी कि मिश्र की उक्त मान्यताएं नाथयोगियों की मान्यता की छाया प्रतिलिपि के सदृष्य है और यही कारण है कि महायोगी गोरक्षनाथ को किसी स्थान विषेष और किसी कालखण्ड तक सीमित नहीं मानते हुए उनके प्रभाव और व्यकितगत उपसिथति को पारंपरिक भारतीय सीमा और समय रेखा से दूर तक विस्तारित किया जा सकता है। षिवलिंग का सर्वोपरी हिस्सा पारा बिन्दू का स्थान है जो सृषिट प्रारंभ से पूर्व है और जब पारा नीचे की ओर निसृत होता है तो सृषिट प्रारंभ हो जाती है। इसी प्रकार जब सूर्य और चन्द्र (ह-सूर्य व ठ-चन्द्र और हठयोग) एकाकार हो जाते हैं तो कुण्डलिनी जागृत होकर पारे (वीर्य) के मेरू पर्वत षिखर (मेरूदण्ड का सर्वोच्च भाग) पर पहुंचती है। इस अवधारणा का ही प्रतिरूप पिरामिड के षिखर (ठमद.इमद) पर तीन रेखाओं के रूप में देखा जा सकता है जो आदिनाथ षिव के त्रिषूल के समान है। यहा यह उल्लेखनीय है कि जहां 84 सिद्ध बौद्धमत और भगवान दत्तात्रेय के जूना अखाडा की विभिन्न परंपराओं में प्रतिषिठत और पूजित हैं वहीं इन 84 सिद्धों के साथ नवनाथ केवल परंपराओं में ही प्रकट होते हैं। नवनाथों की विभिन्न सूचियों की चर्चा हम नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति और उसके प्रारमिभक आचार्य नामक अध्याय में कर चुके हैं। हम चौरासी सिद्धों के नाम और अलग-अलग सूचियों में विसंगतियों की चर्चा नहीं कर रहे क्योंकि इस संबंध में बहुत अधिक लिखा जा चुका है। उस समस्त सामग्री का पुन: उल्लेख करना अनावष्यक विषय सामग्री और पुस्तकीय पृष्ठों का विस्तार तो होगा किन्तु उससे कोर्इ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। किन्तु, इतना उल्लेख अवष्य करेंगें कि सिद्ध पद केवल बौद्ध और नाथ परंपरा में ही प्रयुक्त नहीं हुआ है वरन जैन, अचरंग सूत्र, हिन्दू धर्म की अन्य विभिन्न शाखाओं और पौराणिक ग्रंथों यथा स्कन्द पुराण वायु पुराण आदि में अपनी-अपनी परंपरा अनुसार परिभाषित हुआ है।

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